बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

कुछ कर जाएंगे...!!!


निकल पड़े हैं इन सुनसान रास्तो पर,
कोई बचा लो वर्ना हम भटक जाएंगे...!!!
इनती दर्द भरी रहती यूँ जीने में,
बेवक्त वो गुलाबी कटोरे छलक जाएंगे...!!!,
यूँ परिंदे भी हो जैसे खेतो के मजदूर,
शाम होते ही अपने कोटर को लौट जाएंगे...!!!
जिंदगी के रास्तों में तमाम गड्ढे हैं,
ज़रा गाडी आहिस्ते चलाओ नहीं तो पलट जाएंगे...!!!
इस कहानी को पानी में लिखने से क्या फायदा,
सारी बातें तो लहरें ही चुरा ले जाएंगे...!!!
दिन में परियो की काहानिया मत सुना ए राहुल,
जाना दूर हैं मुसाफिर रास्ता भटक जाएंगे...!!!
(हामारी डायरी का एक अंश)
 

चला जाता था...!!!

तेरा हाथ मेरे कंधे पर यूँ पड़ जाता था,
बड़ी खामोसी से दुःख का मौसम गुज़र जाता था,
खुद का दिल तो ऐसा परिंदा था जिसके पर टूटे थे,
उड़ता रहता बादलो में और पठारों से टकरा जाता था..!!!
यूँ रात भर हम भीगे थे इन यादों की बारिशों में,
दिन भर काँटों के तारों पर फैलाकर सुखाया जाता था...!!!
गया था मैं दुनिया की बाज़ार में खरीदने,
हमको क्या पता था की किससे किसको ख़रीदा जाता था...राहुल...!!!
(हमारी डायरी का एक अंश)

किसे दोष दूँ????

बड़ी शांति से बैठा था मैं एक शाम को जैसे आँख लगी पर ख्वाब ही चोरी हो गया...जाने किसने चुराया...पर धुंध की बदली में छुपा सूरज मुस्काने लगा...एक पीपल की ओट लिए चाँद भी चिडाने लगा...अब किसे किसे दोष दूँ कोई बताए जरा...दिल को मतवाला था कभी अब तो वो भी झुझ्लाने लगा...

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

टूटते तारे...

टूटते तारों में वो नजाकत नहीं होती,
जितना लोग उनके जेबों से टटोलते रहते..!!!
वो तो मुख़्तसर ही समय गुजार लिया,
पर लोग झूठ में ही उन्हें पुकारते रहते..!!!

हवा का दुप्पटा...

यह पत्थर लिपटे धरा से रो क्यूँ रहा ...
मुझे पता था वही उसका प्यार होगा...!!!
एक खत पागल हवा की दुप्पटे पर....
कभी लिखा रखा था तुमने याद होगा...!!!
बड़ी इन्तेजार करके सो गया तेरी चौखट पे...
हो ना हो वो ही तेरा यार होगा...!!

पैदल चल रहे हो तो किसी को साथ ले लेना...

पैदल चल रहे हो तो किसी को साथ ले लेना ,
टूटे परों लदे रास्तों में अपनी साख बचा लेना...!!!
एक गजल खातिर मुह फुलाई बैठी रुत देख,
कभी उसकी तो कभी अपनी सुध बुला लेना ...!!!
एक सकरी गली तलक पहुच चुकी जिंदगी,
हो सके तो अब तो तुम तिराहे बदल लेना... !!!
आजाद परिंदे छुपे बैठे हैं उस पहाड पीछे,
मौका मिले तो उनसे भी जाके मिल लेना...!!!

दराज में अंशु...

एक अर्शे से रखी थी दराज के कोने में ....वो आयातों की किताब ..!!
आखिर क्या जफा हुई पकड़ न सका ...वो आयातों का शैलाब ..!!
इन मुकद्दरों ने भी जाने कितने खीरोचे दी ए दोस्त,
ज़ेहन में लगे महीन धागों को लहू बना गया वो ख्वाब ..
देख कैसे पालथीमार के बैठे हैं हरशु ग़मों के अब्र ,
जाने कितनी बरसातों बाद निकल पाएँगे इन चेहरों के भीगे नकाब ..!!

उमस भरी रात ...

इन उमस भरी रातों का क्या कहना ...बजाते रहते पुराने बॉस के बने पंखे ...दूर जलती लाल रौशनी तलक आँखें रुक जाती ...एक ठंडी आँचल लपेटे बयार को तरसते ...साथ निहारा करते गुमशुम खोये चाँद को ...तारो के सेज में लिपटा कैसा बदली में चुप रहा ...

निगाहें खोयी रहती...

जिस्म बसता यहाँ...यादें कहा खोयी रहती...
हर फुर्सत के पलो में...निगाहें यही खोजती रहती ...
उन छुपती सर्गोसियों तले देख...
तस्सवुरों में यूँही उलझाया करती...

एक एहसास..

जाने उस रात के आने तलक क्या होगा..काश उसके आने से पहले ही मर जाए ये दिन...दूर साहिल पर पड़ी तड़पती सीन्पों जैसे...वरना वो रात की ख्वामोशी मुख़्तसर ही...आ के मेरे जख्मो को कुरेदेगी ज़रूर.....

बदल गए


खून तो एक ही था पर खंजर बदल गए,
जाने कितनो को ले डूबे वो मंजर बदल गए ...!!!

हमारे बगियारे में भी खिलते थे गुलाब,
पर अब वो मिट्टी साख के जंगल बदल गए...!!!

मोतिया भी गिनते रहते थे कभी हम भी बैठे,
पर क्या करे शायद मेरे वो समुन्दर बदल गए...!!!

सूनी वादियों तलक खोजते झिगुरो को हरसू,
पर शायद उनके ठिकाने सारे बंजर बदल गए... !!!

कुछ अनछुए पहलु...!!!


एक याद तस्वीरों से लिपटी हैं...कोई पढ़ सके थो पढ़ ले...वरना मौला भी दुखों के पैमाने...सबके अलग ही अलग बनाता..दूसरा कोई किसी और के जाम नहीं निगल सकता ..."

हमने भी रख ली हैं अपनी पलकों
पर तेरी भीगे हुई ग़मगीन आँखें...!!!

जैसे गिरजे में छाई खामोसी,
और रहलो पर बैठी महीन बाहें... !!!

एक आंसू गिरा दो दृगों से दर्जे पर,
कौन पहचाने किसकी नमकीन आहें...!!!

कैसे पुकारेगा पत्थर से लिपटा वो,
जिनकी यादों से भी संगीन थी बातें....!!!"

आग पर यादें...

गुलामी हैं या आजादी पता ही न चलता,
गैस के चम्बर बिना ही शरीर फुकता रहता...!!!
इन् स्टील की जंजीरों को क्या बनाना,
अपराध बिना भी जीवन ताउम्र जलता रहता...!!!
यूँ उठा कर रख दी हैं हीरोशीमा पर यादें,
पर जेहन का क्या हैं जो खुद उनसे डरता रहता....!!!

सपेरा


प्यार किससे करे...
अब कोई आँखों को जंचता नहीं...!!!
दिल छुपाते कहीं...
पर यादों से वो भी बचता नहीं...!!!

जाने कितनी दूर तलक...
चले आये हम सदमा झेलते...!!!
कांच से कंकड़ बने हम...
अब कोई फर्क पड़ता नहीं..!!!

बिन बादल गिरे ही...
हम झुलस गए देख...!!!
यूँ कोई आँचल तले..
बिजलियाँ तो रखता नहीं...!!!

कैसी अजब सी खामोसी...
रहती शब् की फिजाओं में...!!!
शायद हवा भी उनके...
बातो में अब बहकता नहीं...!!!

उस सर्प-जोड़ो का जाने...
क्या हुआ कौन पूछे...!!!
अब्ब थो सपेरा भी..
अपना पिटारा खोलता नहीं..!!!

बिन चिरागों में बैठी अमावसी रात...

बिन चिरागों में बैठी अमावसी रात जैसी,
दुनिया भी एक दुल्हन हैं सताई हुई...
एक जेठ की तपतपाती धुप जैसी,
मेरे मजार परके फूल सी मुरझाई हुई...
उन किरणों की तबस्सुम को लपेटे,
हंसी होंठों पे लाके दबाई हुई...
हर मुखरो को ये किताबी झलकती ,
कितना किताब्खानो तलक ये भरमाई हुई...

कब्र से आवाज़

पलटकर 
वापस न 
लौट आये साँसे देख,
दो गज 
जमीन भी 
रोज भीगाने आता कोई...!!!
अब्रों से 
कहो जरा 
रोक दे अबसार अपनी,
भीगते कब्रों 
को दामन से 
सुखाने आता कोई...!!

हम तो 
इसी खुशबू से 
दिल लगा बैठे थे,
दिन बदलते ही 
यह मिटटी भी 
बदलवा जाता कोई...!!

मुक्कदर....



साजिशों  को  दामन  से  लगाकर  देखो,
उस  सुनी  बस्तियों  में  नगमे  गाकर  देखो,
पलटने  लगेंगे  दस्तूर  मुक्कद्दर  के,
बस  हाथो  को  भट्ठी  में  तपाकर  देखो...!!!
एक  उमस  भरी  दुपहरी  पालती  ये  ज़िन्दगी,
हर  रोज  ख्वाबों  के  पानी  से  नहाकर  देखो..!!!
इतने  दूर  भी  ना  होते  सितारे  ए  दोस्त,
बस  एक  बार  तुम  बाहें  उचकर  देखो...!!!
गर्दिशे  तो  पालथी  मारकर  बैठी  रहेंगी,
बस  कभी  उनकी  खातिरदारी  में  यूँ  उतरकर  देखो...!!!

जलता शहर...

देख उस जलते शहर किस तरह में बैठा था मैं,
गजलों को पुडिया बनाकर बाहर फेका रहा था मैं...!!!
उन गिरते लफ्जों को इस कदर संजो लिया,
मानो उड़ते धुएं तलक उसने चेहरा ढाप रहा था मैं...!!!
कितने आईने बदन पर डाले बैठा था मैं देख मौला,
फिर भी खुद की सक्ल समझने में नाकाम हो रहा था मैं...!!!

एक तस्सवुर:

जाने कितनी कंघी थामे हवाएं...सहला जाती बालों को...मानो कितनी नजदीकियां हो उनको हमारे रूह में आने की..इतना ऊँचा ऊँचा बोलते दो लड़ते झरने जैसे कोई देहाती दोस्त बड़े दिनों बाद मिले हो..एक दरिया भी शिथिल रहता एक तलक वरना वो भी आँख पर पट्टी बांधे...शामत आई शामत आई खेलता...बड़ी धुल से धुली अंधड़ भी गाँव में आँखों पर चश्मे टाँगे लोगो को परेशान करती...राहुल...

आँखों के मोती....

कहाँ तलक देखू उसे मैं बता ए मौला,
सुना हैं वहाँ दिन में ही रात होता हैं...!!!
बस कोई यह बता दे उन बहती आँखों से,
मोतियाँ बिखेरने से भी चेहरा ख़राब होता हैं...!!!
बड़ी रातों में बेहोश पड़ा रहा मैं भी,
अब उन सपनो में कहाँ नया लिवास होता हैं...!!!

जलते सम्मे


जलते थे सम्मे अब थो घर भी जलने लगे हैं..!!!
जेठ की उमस भरी दुपहरी से मुह पकने लगे हैं...!!!
दिन में कहा खो जाती झिलमिलाती झींगुरों की आवाजे,
अब थो उनके बिना ही लोग देख कैसे,
तनहाइयों तलक भी खामोसी तलाशने लगे हैं...!!!

ये अच्चा हैं देख...

ये अच्चा हैं देख...
कि कुछ लोगो के ख्वाब पूरे नहीं होते,
वरना आज बुतखानो में पत्थरों की जगह,
ताज जैसे कब्रें ही खामोशी समेटे होते.

मुकद्दर....

वो मुकद्दर को गर्दिशों में इतना घुमाया,
यूँ जाना था जन्नत लो जहन्नुम ले आया...!!!
अब्ब किस किस से गिला करे ए मौला,
जब कासिद ने ही पैगाम उल्टा सुनाया...!!!

Mother's Day Special...

"13 May":
जाने कितने गुनाहों की सजा साथ चलती हैं,
पर अब तनहा न रहते दुवाए साथ रहती हैं,
उन कश्तियों के पलटने पर सदमा ना होता,
समुन्दर की लहरें आँचल बिछाये बहती हैं...

गिरते वक़्त भी जख्मों को सहेज लेते ए दोस्त,
इसी बहाने ही उनके हाथों की लकीरे..
मुक्कदर में जन्नत के सितारे उड़ेलती जाती हैं...
कितनी गर्दिसों में पनपते उनके सितारे ए मौला,
जिनके ताजों में माँ की आयतें ना चमकती हैं...

दर्द...

कितने दर्द उसने चुनचुन कर मेरे झोली में डाले,
सूखती राख भी भरभर कर भी मेरे आँखों पे मारे..!!!
यूँ आग थामकर हमने दाँतों से छीला हैं रूह को,
अब भी जाने कितने बचे हैं देख ए दोस्त,
उसी दर्द की आगोश में पनपते 
बिन पैमानों के मैखाने...!!!

आकृति...

जाने कितने बरसो से दिल इसी उम्मीद में खड़ा...!!!
ए हवा आज तू उन सम्मो को भी अब्ब बुझा दे
जाने कितने आते जाते चेहरों में तुम्हे ही खोजता रहा...!!!

एहसास...

यूँ बैठा था अकेला यमुना के झूठे साहिलों में,
की एक सुधि भीगी हवा ने गुपचुप बताया की,
कोई था यूँ लेटा उन ताज के टूटे मकबरों में....!!!

खामोसियाँ...

जाने कितने कयानातो में भटकता रहा था मैं..!!
धुएं से लिपटे उस कालिख जैसे,
इस शब् के दायरों से चिपकता रहा था मैं...!!!
वक़्त के बांह से कटकर जो गिरा बदनसीब लम्हा,
बस उसी को थामे देख कैसे बिलखता रहा था मैं...!!!

बड़ी ताजस्सुम बाद पंहुचा उन गलियों में,
तो उसमे भी उसके घर का निशान ढूढ रहा था मैं ..!!!
अब रोक लो जाके चीखती उन खामोशियों को,
बस आखों पर कान रखे ए राहुल,
बस इस पहर से उस पहर को ही ढूंढ़ता रहा था मैं...!!!

नामुराद गलियाँ

कोई रोक लो हमें ज़रा यूँ ,
चल पड़े फिर उन नामुराद गलियों में,
अब्ब देखते हैं क्या होता हैं ए दोस्त,
दिल पकडे हैं अपने सीने में पर,
शायद उलझा आये हैं उनकी बालियों में...
अब्ब कौन समझाए इस मासूम को,
हम थो सल्तनत तक लुटा आये हैं,
उनकी झूठी बातों से लिपटी वादियों में ...

यादें

जिंदगी कभी ऐसी गूँज भी सुनाती हैं,
बशर को शायरों के चौबारे पहुचती हैं,
मोती लादे नयनो में कोई झाके तो सही,
कितने किस्से की झलकियाँ दिखलाती हैं...

कभी बुलाती वो पीले पत्र ओढ़े हुए,
तो कभी जेबों से सूखे नज्म खुलवाती हैं...
रात कुरेदता पुराने जख्मो को लिए ऐसे,
की बासी यादों के बने पुलाव सनवाती हैं...
देखते उड़कर कटे लुढ़कते उन पतंगों को,
ज़िन्दगी भी जाने कितने मंझे कटवाती हैं..

यादों की पिटारी ..

प्यार किस्से करे अब्ब कोई आँखों को जंचता नहीं,
दिल छुपाते कहीं पर यादों से बचता नहीं,
जाने कितनी दूर आये हम सदमा झेलते,
कांच से कंकड़ बने हम अब फर्क पड़ता नहीं..
बिन गिरे बदल ही हम झुलस गए देख,
यूँ कोई आँचल तले बिजलियाँ थो रखता नहीं...

कैसी अजब सी खामोसी रहती शब् की फिजाओं में,
शायद हवा भी उनके बातो में अब बहकता नहीं...
उस सर्प-जोड़ो का जाने क्या हुवा कौन पूछे,
अब्ब थो सपेरा भी अपना पिटारा खोलता नहीं..

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

नींद के पैमाने...

धुप की सर्गोसियों को सुनती,
ये शाम भी दुबकी चली जाती हैं...
बातें जाने कितने हैं उसके जेहन में,
फिरभी एक लफ्ज न डुलाती हैं...
धुंधले पड़े एक चिराग के इर्द गिर्द घूमती,
चुप चुपके अपने नयनो को सुखाती हैं...
अब उन यतीमों की चीखों को कौन सुने,
सुना हैं की रात तो मौला को भी,
नींद के पैमाने चढ़वाती हैं....

अश्कों की बातें...

अश्कों की बातें दिल भी नाजाने,
सब्र की पुल पर खड़े हैं देख,
ना जाने कितने तराने....
कुछ बिखरे यादें हैं तो कुछ टूटे पैमाने...
इतनी खामोसिया रहती सुनी रातों में,
एकाएक कहा चल जाते झिगुरों के तराने,
खैर ज़िन्दगी भी हैं ऐसी की,
लिए चलते हैं उनको भी घुमाने फिराने....

चींटी कि व्यथा...

आती आती वो दौड़े दौड़े,
लेकर के पकडे कुछ भौरे,
उसकी आजादी छीन जाने की,
उसकी व्यथा बतलाने की..
जब जब यूँ कोशिश करता हूँ,
तब तब यूँही कुछ खोता हूँ,

फूलो से चिपके रहते वो,
फूलो के साथ ही चलते वो,
दुनिया वाले ये क्या जाने,
उनकी खातिर सब खोते वो..
दिन होती या निशा चद्ती,
गुलो के गुलाबो में सोते वो,
रश खीच खीच ले जाते वो,
लोगो को मिठास दिलाते वो..
पर लोग भी तो क्या जाने,
शोहरत खातिर मरना जाने..
भौरे थो एक बहाना हैं,
साथ मुक्कदर ही लिए जाना हैं..
कौन आता पकडे ज्ञान ध्यान,
सब यही छोरकर जाना हैं,
रह जाएंगे वो अटूट सत्य,
बस वही लिए दफजाना हैं..

नजरें चुराने लगे...

हमसे वो मिले भी तो नजरे चुराने लगे,
जाने क्या कहा था उस दिन उनको हमने,
यूँ सीन्पों से निकलकर मोती झाकने लगे,
एक अजब सी तस्सवुर थी जेहन में पली,
दिन ठहरे पर फलक पर तारे टांगने लगे,
क्यूँ रोकू मैं खुद को जाने से बता दे ए मौला,

जब कशिश के तार हमें उस तरफ बुलाने लगे,
कितनी तड़प हैं मिलने की पूछ दिनेश से,
वो क्यूँ आखिर किरणों की ओट तलक आने लगे..

जुगनू बेगैरत हो गए....

शाम को बुलाया था उन्हें,
अब वो जाने कहा चले गए,
वो तो न ही आये पर देख,

अपने यादों के तराने भूल गए,
दिन होते थे जब वो बाते होती थी,
यादों तले कुछ फरियादे भी होती थी...!!!
अब थो जुगनुओं भी यूँ बेगैरत हो चले हैं,
जैसे अंधेरो की आस्तीन में खुद को सी दिए हो..!!!
चाँद भी मधिम...रात भी काली,
तारों की हो गयी हो जैसे बदहाली...!!!
अब जज्बातों की सिद्दत में कैसे रुके माली,
जब टूट रही हो उसके फूल की वो नाजुक डाली...!!!

फिर भी...रुकते हम
देखते हम...चलते हम...!!!
जाने कितनी और दूर हैं वो बहाना,
जिसे हर वक़्त के....हर अफसाने में,
आंशुओ के धागे से पिरोते हम...!!!

बयार...

बयार बदलती पर ये दिन तो बदलते नहीं हैं,
मुरझाये गुल अब तकियों तले जांचते नहीं हैं...!!!
कबसे बैठा ढूढ़ रहा मैं उस पीपल तले,
साए पर साए देखो अब बसते नहीं हैं...!!!
एक छुवन थी ग़मों की धूप सी छतरी ताने,
ये फौलादी बर्फ के शीले यूँ पिघलते नहीं हैं...!!!

वफ़ा,रंगत,चाहत,अरमान सब हैं दमन पर,
रंग लगे उस गुलाब से अब छूटते नहीं हैं...!!!
हम तो ऐसे बदहवास से हो चले हैं,
कारवां भी ग़मों के काफिले से रूठते नहीं हैं...!!!

23 मार्च...भगत सिंह स्पेशल...

"कमीज में खून छुपाने की ये रीत पुरानी हैं,
दर्द से काँप उठे लफ्ज ए दोस्त,
आज उनकी समताओ का वर्णन करना,
शायद ये उनकी सरफरोसी से बेमानी हैं,
दिलेरी तो ऐसी हैं जैसे भीड़ जाए सिंह से,
पर गिर गए फूल बिन देखे ढेरो बसंत ए दोस्त,

यह उसी यौवन में लिखी कभी की गीत पुरानी हैं.."
कुछ टूटी फूटी पंक्तियाँ थी हमारे जेहन में हमने उसे लयबद्ध किया हैं...

A Striker Salute to our Bhagat Singh,Rajguru,Sukhdev..
Let have throw a simple glimpse on those pages printed red mark with these..Braves..
Jai Hind..

जिंदगी:एक भंवर....लेख...

कभी कभी हम अपने अनुभवों के संसार में केवल एक अकेले नाविक भाति हवाओं से लड़ते रहते हैं...उस भ्रम रुपी संसार के क्रिया कलापों के रचनाकार हम स्वंय ही होते हैं...हम लाख मन्नते कर ले किसी अन्य को अपने उस संसार की ऊष्मा में जलाने में पर हम उन्हें
 उससे परिचित नहीं करा सकते....उसके दुःख, पीड़ा, ख़ुशी, भावनाएं केवल अपने दायरे तक ही नियत रहती हैं ...हमारे अपने लिए होती हैं वो अजब दुनिया... दूसरों के लिए वह एक विचित्र अलग संसार जैसा हैं...वह उसके बारे में जान सकता है, पढ़ सकता है, सुन सकता है... परन्तु उसे महसूस कटाई नहीं कर सकता. ठीक ये बात उसी तरह होती जैसे हम छोटे थे ... हमारे बाबूजी बताते थे की हम लाखो मंदाकिनियों में विलीन हैं और उनमे से सिर्फ एक मन्दाकिनी में हम रहते .... और सूरज चाँद धरती आकाश आग पानी...सब सब इस परिवेश तलक ही हैं..दूसरी दुनिया में कुछ भी नहीं ...सिर्फ धुंध से धुधली तस्वीरे हैं ...जो दिखती नहीं इन् नाजुक आँखों से..

भीगे पन्ने...

पलटकर न देखता अपने किसी शेर को,
हर नज्म पुराने अंशु टपका जाता,
पन्ने भी तो भीग जाते उन्ही अब्सारों से,
हर रोज जाने कौन उन्हें फैला जाता....

जय बजरंग बली

दोनों करो से प्रणाम कर,
वहीँ माथा टेके,
कस्ट कटे,विघ्न हटे,
बजरंगी दुलार लेते..!!
पाप कटे,दोष छानते,
मन हो श्रद्धा परिपूर्ण ,
लो खड़े यमराज समक्ष,
करते हैं जी हजूर..!!
काल स्वयं ही प्रकट,

गाते महिमा का बखान
तीनो लोको के स्वामी को,
मेरा छोटा सा गुणगान ...!!

शिवरात्री स्पेशल

काल चक्र के कष्ट को...वो रख लिया तुरंन्त...!
अमृत से पहले निकला विष...उसे चढ़ा लिया तुरंन्त...!!
देव हो या निशाचर...रखते वचन तुम अत्यंत...!!

महाकाल की महिमा आगे...करू क्या मैं अभिव्यक्त...!
एक बूँद जैसा हूँ मैं...

करू कैसे वो सागर सशक्त...!!
ये पर्व हो या कोई पहर...बिन उनके होते न विरक्त...!!

एक अजीब सी उलझन है...इन कोलाहल में..!
कभी होती कभी न होती...यूँ आजकल में...!!

गम-ए-जनम दिवस छोड़कर भी...कभी बुला सुहैल को ...!
ए महादेव मत आना तू भी...और उगल दे तू उस विष को...!!
जिसने बढ़ा रखा हैं...तेरे नाजुक कंठ की तपिश को...!!

हा आज तू निकल दे...सारे कष्ट जो हमने दिए तुझे,
ये लोग हैं थोड़े भुलक्कड़,या हैं शायद गुम्मकड़..!
जाते तुझे कराने स्नान,
और भूल जाते तेरे...ताकतों का आयाम
तभी रह जाते हैं यह ताउम्र भुख्खड...!!

<<<भोले नाथ आपको समर्पित >>>

वैलेंटाइन डे...स्पेशल...

"माएने बदल गए हैं प्यार करने के आजकल के परिपेक्ष में"...
"प्यार तो हर पल का एक एहसास है,
मानो तो एक अटूट सा विश्वास है
दिल तो सबके पास धडकते हैं,
पर उनको किसीकी जेहन में
धडकना जरा अलग सी रास हैं"...
वक़्त बदला,सोच बदली..!!!
प्यार करने की,तहजीब बदली...!!!
कल्पना छुटी,मासूमियत रूठी,
देख पत्थरों से लड़कर,
ये यादें भी तो टूटी...!!!
यहाँ हीर की खातिर,कभी लैला रोती,
तो कभी रोमीओ की यादों में,
ये जुलिअट कुछ खोती...!!!
एहसास की बात,

वरना यह हवा न होती,
दिन बदलते ही देख,
यूँ जोड़े ना बदली जाती...!!!
जिस बातों को बताने,
में जुबान काप जाती,
धडकनों को छुपाने,
में जैसे शर्म आ जाती,
उसी की आँखों में,
अपनी यादें बस जाती,
तभी ये जुबान कुछ,
कहे बिना सब कह जाती...!!!
आज सब बातें,
पुरानी सी हो गयी हैं,
दिल वही हैं ये बस,
तराने बदल सी गयी हैं...!!!

बादल:


गुनगुनाता रहा यूँही किसी ने सुन ली,
फिर अजब सी कशिश हवाओं पर ढूला दी...!!

सबने कहा ये मेरा ही दोष हैं,
हमने ही उनपर यादों की किताब सुला दी...!!

कबसे टपका रहा अंशू अब्र आज देख,
पता नहीं किसने उसे अपनी कहानी सुना दी...!!

वादे हमारे और उनके बीच ही थे जब,
फिर इन्हें साथ रखने की किसने फ़ना दी...!!

विशाल:जन्मदिवस स्पेशल...

दिन थमे.....कदम बड़े,
एक आग सी ज़ेहन में छाडे,
तूफान भी आये परों पर,
जब सर पे ये फितूर सी छाडे,
सपने,वादे,चाहत,धागे,
सब रहे यूँही महफूज खड़े....
जनम दिन मुबारक हो विशाल..
Trust Perfection...Remove Fear,
Panik Efforts...Triger Swear...
Four parts takes your van,

To the nearest Dreamware...
Most Lovable Person For Me...
Happy Birthday Lovely Brother....

किताबों के गुल


कभी अपने 
दिन भी हुआ करते थे...
बातों से 

रातें सजोया करते थे...

अब थो 

करवटे बेगैरत हो गयी...

वरना हम भी कभी
किताबों में 

गुल छुपाया करते थे...!!!

बसंत और पतझड़


तेरे रास्तो में बिछे फूल...
अब सूख चुके हैं...!!!

वो बसंत के अरमान...
भी देख रूठ चुके हैं...!!!

आ गयी ऋतू टूटने की...
पतझड़ पंख पसार चुके हैं...!!!

रूठा हैं जुगनू मना ले...
बयार ने सम्मे बुझा रखे हैं...!!!

ठण्ड बहुत पड़ती यहाँ...
तभी सूखे पत्तो बटोर रखे हैं...!!!

सोमवार, 27 अगस्त 2012

झील में नहाता चाँद



दिल भीगा नहीं कि अंगारे बरस गए...
ख्वाब जला नहीं कि खालिश झुलस गए...!!!

बड़ी दर्द थी बादल की ककाराहट में देख...
आंसू भी उसके दामन से सरक गए ...!!!

सूखा गया सब कैसे भी लोग संभल गए,
लूह चली इन वादियों के बौर झुलस गए...!!!

कुछ की छतरी निकली गयी इन आलमों में,
शायाद वे ही बच के कहीं बस गए...!!!

ना रहा उसकी गोद में थोडा भी पानी,
तभी यहाँ लोग कतरा कतरा को तरश गए...!!!

कब से खोज रही धरा तुझे ए चाँद..
पर तुम पहले ही किसी झील तलक उतर गए...!!!

दो शब्द पाठको से:

शब्दों के बीच कागज़ का वो हिस्सा जिस पर शब्दों की वो कालिख अंकित नहीं परन्तु भावनाओ के आवेग में पिरोये गए शब्दों के मोती संगठित होकर चीखने लगे और शब्द कम होने के बाद में आकृति सजीव सामने उभरकर मस्तिष्क पटल पर छाने लगे और ऑंखें स्वयं ही अंश्रु धरा में बहती कवि की उस तस्तरी को भाप जाए जिस पर वो सवार हैं....तब समझ लेना की कविता और कवि का वास्तविक कार्य संपन्न हुआ हैं ....

हमारा वक्तव्य...!!!

भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे....
ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता...
चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धुल की परत...एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धुल की 

हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोडा बेवफा जैसा...एक जाल में था फसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं...
हर बार ज़िन्दगी ले जाती वही कहानी दुहराए:
किसी छप्पर में एक बरसात जैसे मौसम में पीते हुवे चाचा की चाय...कुछ दोस्तों के साथ बैठे बिठाये पल...बादल के हिलते हुए पर्दों से मधिम मधिम छनती हुयी रौशनी आँखों को गर्माहट देती...कुछ चर्चाओं में जीवंत होती अनकहे बातें...एक ट्रेन की आवाज कानो में समाती मानो बगल से गुजर रही हो...सादगी हैं मौसम की...जिंदगी का तजुर्बा देखते...कद बढ़ा...मन बढ़ा...पर दिल रह गया सिर्फ एक मुट्ठी भर का...
जाने क्यों??
आखिर क्यूँ??
बेरुखी हैं इस जन्नत में..जिसे कहते लाखो योनियों के बाद मनुष्य बनता जीव...मोह माया के बंधन में फसता मनुष्य...सच्चाई को जाने परखे बिना ही चलता जाता...जाने किस अदालत की तराजू पर अड़े अहमियत किसी से तौलवाते...