बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

ज़िंदगी की गीत


कितनी देर लग गयी उसे ये बताने मे.....
गीत बदली नहीं बरस लग गए सुनाने मे.....!!!

इसे मजबूरी बना देना बेमानी सी होगी.....
बड़ी मुश्किल से गजल बनती है जमाने मे.....!!!

दूसरों की बस्तियों मे सम्मे कैसे जलाए.....
जब आग लगी बैठी अपने ही शामियाने मे......!!!

मौके दिये भी गिने चुने इस ज़िंदगानी ने......
हथेली ने धुल डाली लकीरें उसे भुनाने मे......!!!

©खामोशियाँ-२०१३

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (29-10-2013) "(इन मुखोटों की सच्चाई तुम क्या जानो ..." (मंगलवारीय चर्चा--1413) में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. डॉ साहब मेरे पोस्ट को महत्व देने के लिए धन्यवाद।

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  3. अपने शामियाने को बचाना इसलिए ही जरूरी होता है ...
    अच्छे शेर हैं सभी ...

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