बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

कृतिम खूबसूरती



लपकती झपकती आँखें, उँगलियों से जुल्फे सुलझाती। ट्रेन की खिड़की लगे सीट पर बैठी बाला। लड़ रही अपनी लटों से, जो बार बार किसी जिद्दी बच्चे की तरह कानों की चाहदीवारी फांग बाहर निकल जा रहे।

सूरज किसी लफंगे मजनू की तरह खिड़की बदल-बदल के झाँका करता। जब जब वो सहेज कर हटती, तुरंत की किसी रेत की महल जैसे ढहा देता तेज़ी से आता झोंका। डूबते सूरज की लाल सतरंगी किरने आकर उसके बालो के रंगों को और उकेर देती। अभी ये सब कितना सुंदर चल रहा था कि अचानक से रात आ गयी। खिड़कियों पर शीशे के चद्दर ओढ़ा दिये गए, सटर गिर गए। 

अंदर की कृतिम रोशनी मे वो पहले जैसी कहाँ दिख रही थी। ट्रेन के पंखे भी उसके बालों को नहीं छेड़ रहे थे। मानो कोई घर का गार्जियन आ गया हो, और उसका बाहर घूमना फिरना बंद कर दिया हो। 

कुछ बातें जो प्रकृति ने बना के दी है उसमे इंसान आखिर किस हद तक फेर-बदल कर चुका है। बस इसी हरकत से वो भी हैरान परेशान है। आखिर हम होते कौन है इन सब पर बंदिश लगाने वाले। 

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

टुन-टूना


बंदर के हाथ उस्तरा सुने थे, अब इंसानी हाथ मे टुन-टूना सुन लीजिये....कुछ दृश्य शेयर कर रहे। आजकल ये वाकये साथ हो रहे तो सोचा सचेत तो करू या जान तो लूँ और भी किसी के साथ ऐसा हो रहा।

दृश्य 1:
ट्रेन की लाइट बंद हो चुकी है। यात्री सोने की तैयारी मे है। अचानक देखते ही देखते रेल का पूरा का पूरा डिब्बा रंगबिरंगी जगमगाती रोशनी से नहा गया। मानो चलता फिरता मल्टीप्लेक्स बन चुका हो। ढ्रेन-ढ़ीशुम, धूम-धड़ाम तरह तरह की आवाज़ें आणि शुरू। लग रहा कोई फिल्म चली रही। इत्तिफाक़ ये भी होता की आप वो फिल्म देख चुके है। अब आपका मस्तिस्क पूरी छवि तैयार कर रहा। देख आप रहे नहीं पर सुन रहे और स्क्रीनप्ले आपके आगे चल रहा। अब आप स्लीपर हो या एसी नींद आने से रही, माना करेंगे तो झगड़ा/मार-पीट गाली-गलौज।

दृश्य 2:
बस पूरी खचा-खच भरी है। हिलना-डुलना तो दूर ठीक से खड़े रहना तक दुर्लभ। दफ्तर से बॉस का फोन आए जा रहा, जाने कौन सी बात करनी। दो बार फोन उठाने की जहमत की पर नतीजा कुछ सुनाई नहीं पड़ा, तो फोन काटनी पड़ी। पता नहीं कौन सज्जन के 5.1 चैनल के बूफर मे "रात को होगा हंगामा" चीख रहा। दूसरे कोने से किसी और गाने की आवाज़ सुनाई दे रही। तीसरा और दिग्गज वो अपने क्षेत्रीय भाषा के गाने भी उसी अंदाज़ मे सुने जा रहा। आपका भले ही उस गाने से लेना देना नहीं जानना-समझना नहीं पर भाईसाहब, ये तो सार्वजनिक सवारी है। झेलना तो पड़ेगा ही और अब बॉस से डांट भी फिक्स मानिए। फोन जो काटा आपने उनका इगो हर्ट किया।

दृश्य 3:
हॉस्पिटल आए है। आपका दोस्त पलंग पर लेटा दर्द से कराह रहा। उसे ऑपरेशन थिएटर मे लिए जाने के लिए बस चंद मिनट बचे हैं। बेचारा कुछ दर्द/कुछ उत्तेजना/कुछ डर के कारण सहमा जा रहा। अस्पताल के गलियारे मे फैली नीरवता है, होना भी चाहिए। तभी एक जगह जगह से फटी जीन्स से एक दुबले पतले लड़के ने अपनी ईट के आकार की चमकती मोबाइल निकाली और लग गया निंजा सोल्जर मे। ये निंजा सोल्जर की पिंग-पुंग पूरे हॉस्पिटल के माहौल को बर्बाद कर रही। वो आवाज़ इतनी असहनीय है की मेरा दोस्त बार बार उठ बैठ जा रहा।

दृश्य 4:
मैं काफी देर से "होटल क्लार्क अवध" मे अंकिता का इंतज़ार कर रहा। घड़ी की सुई थम सी गयी है मानो आधे घंटे का समय बीत ही नहीं रहा। चलो किसी तरह मैंने उसे काट लिया। अंकिता आ गयी। अब मैं उससे मेनू ऑर्डर के लिए दे रहा तो वो अपने सेलफोन मे इतनी बीजी है कि जैसे मुझसे बस मिलने आई हो और दिमाग अपने फोन मे लगाकर रख लिया हो। खैर हमने ऑर्डर तो कर दिया अब भी वो खाये जा रही और मुझसे एक शब्द बात नहीं की। मेरा खाना खत्म हो गया और उसने शुरू तक नहीं किया। फिर अचानक से उठी फिर कह रही "सोर्री राहुल आज खाने का मूड नहीं"। मन किया खींच कर दो थप्पड़ लगाऊँ उसे। फिर भी मैंने मज़ाक के लहजे मे पूछा कौन है फोन पर। सर हिलाते वो चली गयी।

क्या मोबाइल का आविस्कार इसलिए किया गया था।

मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

विश्व पृथ्वी दिवस (२२ अप्रैल)


बढ़ती गलती फटती धरती,
झुलस जाता उसका चेहरा,
विनाश की ओर है बढ़ती,
आह से व्याकुल वसुंधरा।

गोद मे उसके खेलते बच्चे,
सर पर रहता हरदम पहरा,
गर्दन काट अलग कर देते,
दर्द दे जाते बड़ा ही गहरा।

विनाश की ओर है बढ़ती,
आह से व्याकुल वसुंधरा।

निर्झरिणी बैठी नहला देती,
कपड़े भी धो देता है पोखरा,
शर्म ना आती हमे कभी,
कर देते उसको भी संकरा।

विनाश की ओर है बढ़ती,
आह से व्याकुल वसुंधरा।

पवन चलता सांसें चलाता,
दिनकर देतें है जो पहरा,
वायु को दूषित करके हम,
सूरज से मोल लेते खतरा।

विनाश की ओर है बढ़ती,
आह से व्याकुल वसुंधरा।

विश्व पृथ्वी दिवस (२२ अप्रैल)


©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

नियति


आज भी वैसे ही सूरज उगा जैसा हर रोज़ खिलता है। रोज़ की तरह आज भी कंधो पर मटमैला झोला लादे निकल गया छोटू दुकान की ओर। हाँ छोटू यही तो पुकारते है उसे सभी, अब तो अपना नाम तक ठीक से याद ना था उसे। बर्तन मांज कर रोज़ उनको नया कर देता छोटू। सूरज बाबा अभी हल्की आंच पर पक रहे थे और साथ छोटू की पहली-पहली चाय भी। हाँ सुबह की पहली चाय का ज़ायका क्या होता वो भी अजय होटल का, ये तो कोई बस उस गली के किसी भी आदमी से पूछे ले।

कोई अखबार लेके बैठता, तो कोई सिगेरेट। कोई काम से बैठता, तो कोई बिन काम के। कभी राजनीति पे चर्चे गरम होते, तो कभी खिलाड़ियों की वाह वाही।

पर हाँ श्यामू की चाय हर किसी को भाती। श्यामू उस होटल का मैनेजर। अजय अग्रवाल कम आते थे तो उनका पूरा काम श्यामू ही देखता था। छोटू थोड़ा परेशान सा रहता शायद उसे सब कुछ अच्छा ना लगता। पर नियति के आगे एक अदने से छोटू की क्या औकात। उसके बातों से हमेशा एक नवाबी खानदान की बू आती। लेकिन लोग कौन उसकी बात पर ध्यान देते ही थे। एक तो छोटा समझकर दूसरा छोटू समझ कर।

छोटू बड़ा ही होनहार था। काफी तेज़ी से सीखने वाला बच्चा। तुरंत बातों को याद रखने वाला दस बरस का माधवेद्र प्रताप सिंह उर्फ छोटू बहुत महत्वाकांक्षी था। कभी पूरे होटल को खरीदने की बात करता तो कभी बड़ा आदमी बन देश मे बदलाव लाने की। 


दुकान काफी बड़ी तो नहीं थी पर बगल सड़क गुजरने के वजह से धंधा अच्छा चल रहा था। लोग, राहगीर सभी अपना जायका ठीक करने उसके दुकान पर चले आते थे। पर धंधा अच्छा चले या खराब छोटू के हिस्से मे तो वही 600 रूपये आते, जिसके बदले मे तो उसके पूरे उजाले कुछ अधेरों भी छीन लिए जाते। 

मैं अक्सर उधर से गुज़रता था तो कुछ देर वहाँ जरूर रुकता था। लोगों को देखता रहता, फिर कलम डोलाता। कलम मुंह मे दबाये फिर कुछ सोचता, काफी दिन ऐसे ही चलता रहा। थोड़ी बात ज्यादा करता था मैं। लोगों की उत्तेजना, उनकी भड़ास, उनके विचार आखिर सब जो कलमबद्ध करना था मुझे। तो श्यामू से रोज़ ही बात होती। श्यामू भी अपने काम मे भिड़े हमे जवाब दिया करते थे। 

एक बार छोटू मुझे देख पास आ गया और बड़ी ललक से पूछा राहुल भैया 'क' है ना ये और ये 'र' ना। मैं भी बोल पड़ा हाँ बेटा पर आप पढ़ना जानते हो। 
उसने सर हिलाकर मना करते बोला, जब हम घर से यहाँ आते तो सुबह एक विद्यालय मे मास्टरजी को पढ़ाते सुना था। 
मैं दंग रह गया ये सुन के। चुप सा हो गया मैं....बस एक टक देखता रहा उसे। अभी तक मैंने छोटू की करतूते सुनी थी पर आज उसे महसूस कर रहा था। मुझे उस वक़्त बस ऐसा लग रहा था कि क्या चीज ऐसी अनमोल मुझे मिल जाती और मैं इस छोटे से नवाब को दे पाता। 
पर निराशा ही थी मेरे पास, मैं नया लेखक था और मेरे भरसक कुछ था भी नहीं। 

सोचता रहा इस छोटू नाम पर तो रिसर्च करवा देना चाहिए। छोटू ये वही नाम है जिसको लोग कितने आसानी से अपने आस-पास खोज लेते। किसी मिस्त्री मेकनिक के यहाँ, जहां पर अपने नन्हें हाथो से बड़े-बड़े रिंच कसता छोटू। या फिर गली मुहल्लों मे कूड़े की बोरी सर पर लादे उल्टे-फुल्टे रास्तो से प्लास्टिक की बोतले बीनता छोटू। सब एक ही जैसे तो होते आधे फटे कपड़े पहने, बाल उलझे हुए किस्मतों की तरह। तभी तो इनकी जाति छोटू होती। आखिर कहाँ चली जाती "समेकित बाल श्रम योजना" और "शिक्षा का अधिकार" जैसी पैसो से भरी सरकारी योजनाएँ। मैंने तो आज तक इससे किसी छोटू की ज़िंदगी संवरते नहीं देखा, हाँ अमीरज़ादों के बटुए गरम करते देखा है इन पैसो से। 

खैर कुछ रोज़ मैंने वहाँ जाना बंद कर दिया मुझसे उसका दर्द देखा नहीं जाता था। अचानक एक दिन घंटी बजी। दरवाजा खोला तो पता चला श्यामू मेरे कमरे पर आए है।
"हाँ....मैनेजर साहब आप मेरे यहाँ और छोटू तू...कैसे आना हुआ बोलिए"....मैंने कहा
श्यामू की आँखें सब हाल बयान कर रही थी, पर फिर भी मैंने अपने सवाल को इस बार थोड़ा ज़ोर देते हुए किया। 
अबकी बार तो श्यामू मुझसे लिपट फफक ही पड़े थे, वे बोल कम रहे थे रो ज्यादा रहे थे। मैंने उन्हे ढाढ़स बंधाया पर बात जो थोड़ी बहुत मेरे समझ आ रही थी कि शायद उनका दुकान सरकार गिरा रही है। क्यूँकी उस ओर से अब चार-लैन की सड़क जो बनेगी। अब तो चुनाव भी हैं तो सरकार ये मौका भुनाए बिना जाने नहीं देगी। 

श्यामू रुकने का नाम ना ले रहे थे, रोते रोते वे सो गए। मैंने उन्हे अपने पलंग पर लेटा दिया। पर सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे उस नन्हें से छोटू पर आ रहा था, उसके चेहरे पर दर्द की जरा सी सिकन नहीं थी। मुझे लगा बच्चा है अभी ये सब समझ नहीं रहा होगा तो क्या। लेकिन मेरे ये सब सोचने से पहले ही वो बोल पड़ा। 

राहुल भैया श्यामू काका झूठ ही डर रहे, "कल मंत्री जी आएंगे, "उनके ही पाँव पकड़ लेंगे हम कुछ गुहार करेंगे मंत्री जी दयावान है जरूर मदद करेंगे।" मुझे उस अदना से छोटू पर एक साथ जाने कितने भाव आ रहे थे। खुशी, दुख, गर्व, दर्द सबके सब एक साथ मेरे दिमाग का दरवाजा खटखटा रहे थे। 
मैंने पलट के जवाब मे हाँ बोल सर हिला दिया। आज मुझे उन्हे जाने देने का मन नहीं कर रहा था। श्यामू ठीक हालत मे नहीं थे और छोटू की बातें मुझे अंदर से हिला दे रही थी। 

रात बीती सुबह बड़ी तेज़ आवाज़ ने सभी के नींद खोले दिये। दौड़ के देखा तो होटल टूट रहा था, वो होटल जिसमे छोटू-श्यामू की जीवन का बहुमूल्य समय लगा था वो टूट के राख़ मे बिखर रहा था। एक-एक ईट हिलता या एक-एक आँसू चलता। बाकी तो नज़ारे देखने की भींड़ थी काफी बड़ी। अपने सामने अपने सपनों के इमारत को टूटता देख नहीं पाए श्यामू। होटल टूटते ही वो भी टूट गए काफी ज्यादा। पर ना नेता जी आए ना किसी से गुहार हुई। काफी दिन बीत गए मुझे अचानक शहर से बाहर जाना पड़ गया। 

लौट के आया तो प्रचार बड़ी जोरों-शोरों पे था। हर तरफ बीजेपी पद के दावेदार "सुधाकर ओझा" का नाम की गूंज चारो तरफ थी। ढ़ोल-नगाड़े, रोड-शो, काफी कुछ जैसा कोई मेला लगा हो। बड़ी जानकारी की तो पता चला, आज "आगाज-शंखनाद रैली" है और सुधाकर जी के साथ बीजेपी पद के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार "श्याम बिहारी वाजपेयी" की गर्जन रैली। बड़े बड़े पोस्टरों पर छपा था आज गरजेंगे, श्याम बिहारी। बड़ी दूर मुझे छोटू दिखाई तो पड़ा पर शोर इतनी ज़ोर से था कि मैं उसे बुला ना सका। पर उसके चेहरे पर आज भी वही धमक थी, वो जो काम करता था वो इतने लगन से करता कि उसे मलाल ना रहता था। उसके कपड़ो से हमने अंदाजा लगाया शायद वो रैली मे कार्यकर्ता था। 

मैं शाम का इंतज़ार नहीं कर सकता था और तुरंत होटल की जगह पर गया वह पर तो अभी भी वो मलवा वहीं पड़ा था। शायद किसी ने छुवा भी नहीं था। कुछ देर मे छोटू दिख ही गया। मुझे देख वो जल्दी से मेरे पास आया। 
बाबूजी, "श्यामू काका कोमा मे है"। इतना कहकर वो रोने सा लगा। आखिर उसका जो था वो श्यामू ही तो था। माँ-बाप-भाई सब कुछ। आज मुझे उस छोटे बच्चे पर बहुत सारा तरस आ रहा था। मैं भगवान को कोसे बिना रह ना पाया, "क्या भगवान तुझे सारे जुल्म इसी नन्हें से कंधो पर ही डालना है और कोई नहीं दिखता तुझे।" मैं यही सब अनाब-सनाब मन मे बोले जा रहा था

राहुल भैया काका को देखने मंत्री जी आए थे। कह रहे थे दुकान वापस नहीं दे सकते पर हाँ मुआवजा तो दिया गया है भरपूर। भैया सारा माल अजय अग्रवाल गटक लिए है। हमारी मेहनत पर आखिर इन बड़े हाथो का हर बार हक़ क्यूँ चलता और अजय अग्रवाल अभी तक काका को देखने तक नहीं आए। उन्हे लगता सारा खर्चा उनका हो जाएगा। पर क्या वो इंसानियत के लिए इतना भी नहीं कर सकते। काका ने तो उनके लिए पूरा जीवन खर्चा है क्या चंद पैसे नहीं दे सकते वो। 
खैर मंत्री जी ने मुझे आश्वासन दिया है कि तुम मेरे रैली मे कार्यकर्ता बन जाओ और चुनाव के बाद हम कोई और काम दे देंगे। उसकी आँखों मे आस था, आँसू भी।

मैं बस उस नन्हें से फूल की हर एक बात सुनता जा रहा था। आखिर नियति ने एक 10 बरस के छोटू को कितना कुटिल, जटिल और भारी बना दिया है। मुझे नहीं पता कि उस जगह बीजेपी जीती या काँग्रेस....मुझे नहीं पता कि वहाँ से सुधाकर ओझा जीते या कोई ओर महानुभाव। पर जो भी जीता होगा वो किसी भी छोटू खातिर कुछ नहीं किया होगा इतना पता है। उसके काका कोमा मे ही पैसे के आभाव मे दम तोड़ दिये होंगे ये पता है। अजय अग्रवाल उन पैसो से अपना कोई और कारोबार कर लिए होंगे ये पता है। 

मैं बस उसके सर पर हाथ फेरता रहा। ईश्वर से अपने सारे पुण्य को समेटकर उसके कुंडली की कढ़ाई मे जलेबी की तरह छानने की गुहार करता रहा। आंखे बरसती रही और नीचे तेल मे पड़े लोगों की आवाज़े तड़-तड़ाती रही। फिर कहीं गुम हो गया छोटू उसी भींड़ मे कहीं।  

- मिश्रा राहुल
(लेखक एवं ब्लोगिस्ट)

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

देश



राख़ खोई कस्ती को बदनाम होने दो,
साख खोई बस्ती को श्मशान होने दो।

कलई खुल जाती सब झूठे वादों की,
आदमी से आदमी की पहचान होने दो।

जुबान खुलेगी तो काट दी जाएगी,
पन्नो से पन्नो का समाधान होने दो।

एक ही छत तले बदल जाती फ़ाइलें,
कोनो से कोनो को सावधान होने दो।

बदल जाएंगे जीने के मायने बड़े जल्द,
अमीरों से अमीरों को परेशान होने दो।

शान से चलेगी इस देश की भी गाड़ी,
बहानो से बहानो का पूर्वानुमान होने दो।

©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

रोज़ की व्यथा


एक खचा-खच भागती लो-फ्लोर बस मे, तेज़ी से दौड़ते एक 60-65 के बुजुर्ग घुसे। साँसे अभी थमी नहीं थी कि नज़रें सीट तलाशने के काम मे जुट गयी। सीट कहाँ मिलती बस मे लोग पहले से ही खड़े थे।
बड़ी दूर देखा उन्होने कि ड्राईवर की सीट के पीछे वाली सीट पर एक लड़का बैठा है और उसको बाजू की सीट खाली है। पर शायद "किसी को वो सीट दिख ही नहीं रही थी" दादा ने यही सोचकर बहुत हिम्मत जुटाई और पूरी भींड़ चीरते हुए पहुँच गए।
बेटा "आप अगर अपना बैग हटा लो तो एक बूढ़ा आदमी बैठ जाए" चाचा ने बड़ी आस भरी निगाहों से उसकी तरफ देखकर बोला।
पर लड़का तो हैडफोन लगाए अपनी ही दुनिया मे था। उसे कुछ सुनाई ही नहीं दिया।
अबकी बार चाचा ने उसे झांकझोरते हुए बोला, "अरे बेटा ज़रा आप बैग हटा लो तो ये बूढ़ा भी बैठ जाए"
लड़का झल्ला गया, "देख बुड्ढे इस सीट पर अभी कोई आएगा और तू बूढ़ा है तो घर पे रह क्यूँ बस मे सफर करता है"। चाचा खिसियाते हुए वहाँ से हट गए, बुरा तो लगा था उन्हे पर क्या करे सब कोई उनके बस मे थोड़े है।
तब तक पीछे से आवाज़ आई, "काका आप आओ यहाँ बैठ जाओ मेरी सीट पर ये सहबजादे है उठेंगे नहीं"। काका ने नज़र घुमाई तो देखा, एक दुबला पतला युवक जिसका एक टांग नहीं था बैसाखी के सहारे उठा और खड़ा हुआ। चाचा ने माना किया, बेटा तुम कैसे खड़े....??
इतना कह कर रुक गए जैसे उन्होने आधी जुबान मुंह मे ही गटक ली हो। टेंशन ना लीजिये काका आप हमको कमजोर ना समझिए। आप आराम से बैठिए।
बस इतना सुनते ही चाचा की आंखे भर आई। वो बच्चे से कुछ बोले तो नहीं पर हाँ उनकी आंखे वो सारे आशीर्वाद दे देना चाहती थी उसको जिसके लिए प्रकृति भी गवाही नहीं देती।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

रविवार, 13 अप्रैल 2014

कलम देखा है तुमने विरासत कहाँ देखी


कलम देखा है तुमने विरासत कहाँ देखी,
जख्म देखा है तुमने हिम्मत कहाँ देखी...!!!

बरस लगते मुखरे-मुकम्मल करने मे,
लफ्ज देखें है तुमने दिक्कत कहाँ देखी...!!!

जमाने भुला देते झूठी शान बिछाने मे,
भरम देखा है तुमने गफलत कहाँ देखी...!!!

हमने भी छोड़े है रईसी आशियाने तेरे,
रकम देखी है तुमने इज्ज़त कहाँ देखी...!!!

एक वजह खातिर ऐसे कैसे रूठ चली है...
कसम देखी है तुमने चाहत कहाँ देखी...!!!

©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल

टेम्पररी आस्था


शरीर के खून चूसती गर्मी लिए आज फिर पहाड़ सा दिन खड़ा था। वही चटक धूप बालों के ऊपर से होकर गुज़र रही थी। बच्चे आखिरी सांस तक पूरा का पूरा सिलेबस गटकने के मूड मे थे। पर चेहरे काफी खिले हुए थे, हाव भाव से तो लग रहा था कि मैदान-ए-जंग के ताबूत मे बस आखिरी कील ठोकनी बाकी थी। हर जुबान पर बस यही था, "आज बस बचा ले भगवान..."। मन ही मन भगवान से डील भी करते कुछ जुबान पाए गए।

आज तो सभी आस्तिक थे। सभी मंदिरो, सभी मस्जिदों, सभी गुरद्वारों और शायाद गिरजाघरो से अपनी अपनी मन्नतें ले के जो आए थे। आज तो सौहार्द था, ना कोई हिन्दू ना कोई मुस्लिम....आज तो बस सभी भगवान के सच्चे सेवक थे। बड़ी बारीकी से पता किया तो मालूम चला आज बड़ा धमाकेदार पेपर है। लोग हौआ भी तो खूब बनाते पेपर से ठीक एक दिन पहले। कुछ तिकड़म-बाज़ पेपर उड़ाने के लिए रातों तक घूमते पाये जाते, तो कुछ अपने अंदाज़ से चपटेरो के हिस्सो को आने का दावा करते पाये जाते। सबको पता होता की ये सब फर्जी है नकली है, पर रिस्क कौन ले।

सुनील और विक्रम दोनों सेकंड इयर इलेक्ट्रॉनिक्स डिपार्टमेंट के बंदे। देखने मे बड़े सज्जन, पर क्लास मे इनसे बड़ा गुंडा कोई ना था। अरे पढ़वाइया जो थे। रोज क्लास करना, हर लैक्चर अटटेंड करना, समय पर काम पूरा रखना। अरे कभी कभी विक्रम सनडे तक आ जाता था, सुनील उसे खींच ले जाता था। साल भर जाने कौन सी पढ़ाई करते थे दोनों, पढ़ते भी थे या विलन बनाने आते थे रोज़।

आज तो पेपर का दिन था। उनके चेहरे पर भी खतरे की घंटी देखते विजय से रहा ना गया और बोल पड़ा, "अबे तुम लोग भी अभी तक पढ़ रहे, एक तो रोज़ आते हो, फिर भी कुछ बाकी ही रहता तेरा"
विक्रम-सुनील को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था जैसे। विजय जाओ, "भगवान के लिए हटो, आज वही बेड़ा पार कराएगा...ईएमएफ़टी जो है"
विजय पलटवार किया,"तू तो नास्तिक है, तो भगवान-भगवान कैसे जपने लगा..."
विक्रम बोला, "भाई दूसरों के चक्कर मे पंगा कौन ले, कहीं भगवान सच मे हुआ तो अपनी तो बैंड बजेगी ही ना"
विजय कुछ कहा नहीं वो मस्त-मौला था। सबको छेड़ता रहता, खींचता रहता बंदा।
दो टाइप के लोग मिलते एक्जाम के समय। पहले जो किताब पूरा छूए होते और दूसरे वो जो एकदम नहीं पढे होते। पहले ज्यादे परेशान रहते दूसरे तो जानते ही नहीं क्या आएगा।

चलो घंटी बज गई और सब अंदर प्रवेश कर लिए। 

सबके चेहरे के हाव-भाव एक जैसे, हसते-खुश होने की एक्टिंग करते चेहरे। खुद के ऊपर के दबाव को मन मे समेटते चेहरे। कुछ मज़ाक के बाद फिर ईश्वर की ओर आशा से देखते चेहरे। अंदर परीक्षा कक्ष मे गुसते हुए भी सहमे हुए है। परीक्षा शुरू हो गई पेपर देखते ही तोते उड़ गए लोगों के। कलम थम चुकी थी लोगों की,बस नज़रे चल रही थी। देख रही थी एक दूसरे को बड़ी लाचारी से। सबके चेहरे पर की नसें तनी हुई थी और चिंता की लकीरें बार बार ढेरों आकृतियाँ बनाती ही जा रही थी। आज घड़ी भी सुस्त पड़ी, और दिनो की तरह भाग नहीं रही थी। कभी कभी तो पेपर छूट जाता था टाइम की वजह से आज घड़ी भी रुक गयी लगता वो चिढ़ा रही हो।

विक्रम-सुनील जैसे कईयों की आज आस्था दांव पर लगती दिख रही थी। मन ही मन कितनी ख्याल आ रहे थे, पढ़ा भी था बजरंग बली को "छप्पन भोग" से आधा किलो लड्डू तक की भी डील तय हुई थी। फिर भी उन्हे तरस नहीं आया इस अनन्य से भक्त पर। जाने कितने बद्दे-बद्दे विचारो से बजरंगी समेत पूरे हिन्दू भगवानों की सत्य-निष्ठा संदिग्ध कर दी दोनों ने। परीक्षा भवन से निकलते ही ढेरो वादे किए सब ने अगली बार से पहले ही सब पढ़ लूँगा, आखिरी टाइम मे कुछ होता नहीं। भगवान भी साथ ना देता। 

ये बात सिर्फ विक्रम-सुनील की नहीं थी हजारो लोगों की थी, बस नाम अलग होते थे। 

पर फिरभी किसी तरफ अनाब-सनाब लिख कर लोगों ने पूरा किया पेपर। आखिर बाहर जो आजादी उनका इंतेजार कर रही थी। जहां वे बेफिक्र रात तक घूम सके, क्रिकेट मैच का पूरा लुत्फ उठा सके। जाने कितने दिनो से क्रीकइन्फो पर ही क्रिकेट देखते, वे खिलाड़ियों के लाइव एक्शन को जो तरस गए थे। कुछ के दो महीने के फिल्म का कोटा भी अभी तक पूरा नहीं हो पाया वो तो आज ही टोररेंट लगा के सोएँगे, ताकि सुबह तक डाउनलोड हो जाए। सब लग गए रम गए अपने पुराने ढर्रे मे भूल गए सारे वादे, जो कभी खुद से किए थे। आदमी एक्जाम से ठीक पहले जितना सच्चा हो जाता उतना अगर हर पल रहे तो परीक्षा कभी समस्या रहे ही क्यूँ। 

दो महीने बीते, अब रिज़ल्ट आने के दिन आ गए। रात के बारह बजे। फिर से पूरे हॉस्टल मे टेंशन का माहौल व्याप्त। और तो और इस दिन हॉस्टल का वाई-फाई जरूर नहीं काम करता। काम करता तो बस 2जी का धीमा कनैक्शन जो की सस्पेन्स बनाने की आग मे घी का काम करता। वैबसाइट खुल भी जाती तो करीब करीब दस बार करने पर किसी एक का रिज़ल्ट सुनाई देता, फिर चरचाए गरम हो जाती। बहरहाल थोड़े लोग तो ऐसे रहते, जो अपने रिज़ल्ट से पहले पड़ौसी का देख लेते। दो बातें उसमे भी होती पहली ये कि  शायद उन्हे एक साथ दर्द झेलने का दम ना होता या फिर दोनों फ़ेल होंगे तो दर्द बांटेंगे। 

सुबह चार बजे तक लगभग सबके दुखड़े हर लिए जाते। जो कभी पास होने की दुहाई दे रहा होता, वो रिज़ल्ट आते ही शेर बनके कम नंबर खातिर भगवान को कोसता। जो फ़ेल होते होते बचते, वो ये कह बच जाते की अभी तो तूने फ़ेल करा दिया होता रे भगवान। फ़ेल होने वाले तो सीधा जाके उन रुपयों का बैक-पेपर का फॉर्म भरते। मजबूरी है करे तो क्या घर बता सकते नहीं और पॉकेट मनी मे इतना उतार चढ़ाव घर के खातों मे दिख जाता। 

मतलब बजरंगी को लड्डू के बस वादे किए जाते और वो बेचारे खिसियाए अगले परीक्षा का फिर से इंतज़ार मे जुट जाते। वो भी सोचते अभी एडवांस देने वालो का ही काम करूंगा अन्यथा बयान से पलट जाते भक्त-गण। 

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

पृथ्वी गोल घूमती


एक बहुत बड़ी मूंछ वाले दादाजी....एक छोटी कद-काठी के अनुभवी चाचाजी....कुछ दौड़ते भागते नवयुवक....


सुबह-सुबह की बेला का ये मनोहर दृश्य देख मन भर जाता। हर दिन जैसे 24 घंटो बाद हम फिर निकल जाते। उन्ही कुछ अंजान चेहरो से मिलने, जिनसे मिलने का कभी हमने वादा नहीं किया फिरभी बड़ी बेसबरी से नजरें खोजती उन्हे। मानो हर 24 घंटो बाद पृथ्वी घूम के फिर वापस आ जाती। 


सबके चेहरे पर एक अजीब सी रौनक रहती। यही काम तो है जो हर कोई करता बिना भेद-भाव बिना रोक-टोक। चाहे वो अरब पति हो या सड़क का कूड़ा उठाने वाला। सुबह का उगता लाल सूरज घूस नहीं लेता, ना रात की ओट मे छुपा चाँद कभी अपना हिस्सा मांगता। वो तो दोनों को बराबर ही रोशनी/शीतलता देता।
पर आज वो बड़ी बहुत बड़ी मूंछ वाले दादाजी दिखे नहीं। शायद कोई उन्हे वृद्धाश्रम छोड़ आया होगा। ना ही चाचाजी ने अपने अनुभव बाटें आज। उन्हे भी कोई भतीजा जायदात की लालच मे खा गया होगा।

आखिर इन्ही 24 घंटो के बीच ही तो उन सड़को पर लगने लगती सपने सजाने की बोली और वही बोली सुबह के मसालेदार चाय के साथ हाथो मे लिए अखबार के किसी कोने से उठाकर हम पढ़ते। शायाद उसमे मूंछ वाले दादाजी.की फोटो ना हो पर होगा कोई उन जैसा ही। जिन्हे लिए हम केवल 20 सेकंड ही अफसोस जताते।
अब "न्यूटन चाचा" की भौतिकी समझ आई। हाँ पृथ्वी गोल ही घूमती, सारे के सारे चक्कर मे वही सब दिखते जो की किसी मेले झूले पे बैठे एक छोटे बच्चे को दिखते। जो पूरी भींड़ मे बस और बस अपनी माँ को निहारता रहता और खो जाने पर कस-कस के चिल्लाने लग जाता। आदमी भी तो बच्चा ही है पर वो अब रोता नहीं एहसासों के लिए ड्रॉपबॉक्स बनाया है उसने पर कभी उसे उड़ेलता नहीं।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

बेमिसाल ज़िंदगी


बाल सफ़ेद....चेहरे पर कार्बन फ्रेम का मोटा चश्मा....बदन पर मटमैला रंग का कुर्ता....और कंधे पर भगवा झोला।
हाँ शायद यही थी कद-काठी उस पैसठ-सत्तर बरस के बुजुर्ग की। पर उनको बुजुर्ग कहना जरा गलत सा होगा उनकी दिनचर्या इतनी चुस्त-दुरुस्त थी की आज भी वो पाँच-सात किमी आसान से दौड़ जाते थे। उनके सामने अच्छे-अच्छे नवयुवक पानी भरते नजर आते थे। इतनी बड़ी ज़िंदगी, बड़ी कठिनाई से काटने के बावजूद उनके चेहरे पर शिकन ना होती थी।

पर अब इस उम्र के पड़ाव मे वो ज़रा एकांत चाहते थे। तभी भीड़ वाली दुनिया से दूर, सुबह-सुबह हर रोज़ निकल जाते किसी एकांत की तलाश मे। पर एकांत भी उनकी पहुँच से दूर ही भागता जाता। अभी मन की इसी उथल-पुथल मे रमे पाठक जी एक अंजाने से पार्क मे बैठे कुछ और ताना बुनने ही वाले थे कि पीछे से आवाज़ आ गयी।

अरे बाबाजी...प्रणाम...राय साहब ने बोला
जीते रहो...बेटा...पाठक जी का यही तकियाकलाम था। पर मौके की नज़ाकत को पकड़ते हुए, पाठक जी ने उन्हे और बोलने का मौका भी नहीं दिया।
बेटा ज़रा लेट हो गया अब चलता हूँ..पाठक जी ने बड़े नरम आवाज़ मे कहा...!!

महेश्वर पाठक अपने एरिया के महा विद्वान और पूजनीय व्यक्ति माने जाते थे। किसी के यहाँ कुछ कार-परोज हो तो सबसे पहले न्योता महेश्वर पाठक जी उर्फ "बाबाजी" को दिया जाता था। ऐसा नहीं था की बाबाजी लोगों को पसंद नहीं करते थे, पर कुछ उखड़े-उखड़े रहते थे। सारा जीवन जप-तक मे काटे महेश्वर पाठक के पास जमा पूंजी के नाम कुछ ना था। हाँ था तो बस "एक तेज़ जो उनके साथ चलता था, जिससे वो कितने भी भीड़ मे हो आसानी ने पहचान मे आ जाते थे"।


महेश्वर पाठक...शायद नाम ही काफी था मुहल्ले मे। लोग तो यहाँ तक की उनके घर के पते से अपने निवास स्थान को बतलाया करते थे। बाबाजी बड़े सुबह ही उठ नियमतः पूजा मे तल्लीन हो जाते थे। पर इतने जप-तप करते हुए भी पाठक जी कभी सुखी न रह पाए थे। जितने सुनियोजित बाबाजी थे, उतना ही पत्नी सुजाता भी कर्मठी थी। आखिर हो भी क्यूँ ना महेश्वर पाठक की पत्नी कहलाना भी कम गौरव की बात थोड़े थी। बाबाजी भी तो काफी ज़िम्मेदारी उन्हे सौंप दिया करते थे। 

भगवान के बेहद करीब माने जाने वाले बाबाजी चंद-मंत्रो के उच्चारण मात्र से बड़े-बड़ो के दुखड़े हर लेते थे। पर शायद ईश्वर से कभी भी बाबाजी की बनी ही नहीं। बड़े कम समय मे ही उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया, ज़िंदगी के हर चट्टानों से दो-दो हाथ कर बाबाजी ने अपनी ज़िंदगी काटी। पर फिरभी ईश्वर को कभी दोष ना देते थे। बाबाजी का बेटा था अजय पाठक, था थोड़ा अंग्रेज़ियत वाला। उसे उनके काम मे जरा भी दिलचस्पी नहीं आती थी। बाबाजी के अपने काम मे इतने मगन रहना भी इसकी वजह हो सकती थी, वे घर वालो को समय नहीं दे पाते थे। अजय गुस्सा होता तो सुजाता से शिकायत करता था। हाँ, सुजाता एक कड़ी थी अजय और बाबाजी के बीच की। 

एक दिन अजय से रहा ना गया और बोला "माँ, आखिर ऐसे कब तक चलेगा!! आखिर पापा समझते क्यूँ नहीं इन सब से हम कब तक गुज़ारा कर पाएगे। ओह गोड...इट टू इरीटेटिंग। ये भजन-वजन आप गाओ। मेरे से ना होगा, और मुझे बाहर जाना है। 
सुजाता ने बहुत समझाया पर इस बार मसला गरमा गया। बाबाजी के कानो तक भी मामला पहुँच ही गया। उन्होने सुजाता को समझाया, "उसका अगर मन नहीं तो काहे जिद्द करतीं हैं आप, जाने दीजिये"। 
आखिर बेटे की ज़िद्द के आगे दोनों नतमस्तक हुए। अजय को अपनी सारी जमा पूंजी लगा कर बाहर भेज दिया। 

अब बाबाजी फिर से अपने धुन मे लग गए। पर सुजाता को रह-रह कर अजय की ही याद सताती। मन ही मन सोचा करती, "अकेला है और विदेश मे जाने कैसे कैसे लोग होते...कैसे रहेगा क्या खाएगा"। यही सब सोच सोच कर सुजाता गुमसुम सी रहने लगी। हर साल कलेंडर देखती और सोचती "बेटा आया नहीं ना ही कोई फोन किया"। पाँच साल बाद आखिर बेटे का वियोग उसे छोड़ा नहीं अचानक उसकी तबीयत खराब हुई, पता चला सुजाता को ब्रेन-ट्यूमर है। बाबाजी की अलौकिक शक्तियों का फिर से ईश्वर ने जमकर मज़ाक बनाया। सुजाता नहीं रही बाबाजी को अकेला छोड़कर। बाबाजी ने अजय को बुलवाने की हर संभव कोशिश की पर शायद, "उसे आना नहीं था..." पर बाबाजी हिम्मत नहीं हारे, पोटली उठाई और फिर से लग गए ईश्वर के भजन मे। लेकिन उन्हे आदत सी हो गयी थी सुजाता की, रह-रह वो फफक से पड़ते थे। 
पर लोग उन्हे थामते दिलासा देते, "बाबाजी आप ही तो हम सबके आदर्श हो और आप ऐसे करेंगे तो हम अपना दुखड़ा किससे रोएँगे"। 
लोग उन्हे भरोसा देते पर मन ही मन कोसते, हर तरफ एक ही जैसे, "बाबाजी के बेटे डॉ अजय पाठक की 
डिग्री किस काम की अगर वो अपने माताजी को ही नहीं बचा सका, ऐसे नालायक हो जाते है औलाद।"

बहरहाल बाबाजी ना समय को रोक सके ना दुख को। दोनों समानान्तर पटरियों की तरह उनसे बराबर दूरी पर ही रहते थे। काल-चक्र ने शायद बाबाजी को हार मनवाने की ठान ली थी, पर बाबाजी हर बार अपने चोटों को सहलाते उठ जाया करते थे। आखिर जो व्यक्तित्व उन्होने अपने इर्द-गिर्द बनाया था उसका फल मिलने के दिन आ रहे थे। नगर निगम के चुनाव के डंके बज गए, हर गली हर कूचे से प्रत्यासी अपने नामांकन भरने के लिए जोरों-शोरों पर थे। तभी उन्ही मे से किसी ने लहर उठा दी, क्यूँ ना बाबाजी को हम अपना प्रतिनिधि बना ले। मुहल्ले वालो मे तो सहमति बनते देर ना लगी। 

बस जो सबसे बड़ी बाधा थी वो अभी पार पानी बाकी थी। वो ये कि कौन जाके बाबाजी को मनाएगा चुनाव लड़ने के लिए और क्या बाबाजी मानेंगे या नहीं। खैर रात तक फैसला हो गया कि कल सब चलेंगे और बाबाजी को अपने बातों मे फंसा लेंगे। 

किसी तरह रात बीती, हर घरों मे यही चर्चे ज़ोरों पर थे, "बाबाजी मानेंगे या नहीं...."। शायद जितनी उत्सुकता एक बोर्ड एग्जाम वाले बच्चे को रिज़ल्ट आने से होती बस उसी तरह की मनोदशा पूरे मोहल्ले को घेर के रखी थी। लोग बाबाजी से एक एक कर मिले सबने कुछ ना कुछ दुखड़ा ही रोया। 

"बाबाजी अपने मुहल्ले के बल्ब देखिये कभी रात मे जलते नहीं, नेहा को रात मे कॉलेज से आने मे तकलीफ होती है" श्रीवास्तव जी ने कहा
अभी बाबाजी कुछ बोलते तभी सोनू बढ़ई आ गया, "बाबा ये देखो ना पूरा सड़क कैसा हो गया है, कल मैं अपने समान को पहुंचाने जा रहा था कि गाड़ी गड्डे मे गिरी और सामान चकनाचूर हो गया"
बाबाजी को कुछ समझ नहीं आ रहा था, लोग क्या बोलना चाह रहे थे, बाबाजी अचानक से बोल पड़े सोनू बेटा और अनिल बाबूजी आप जाके सभासद से कहिए ना हम कैसे करेंगे ये सब। आपके दुखड़े हरने के लिए मेरे पास तो पैसे भी नहीं, बाकी बचे भगवान वो तो हमसे रूठे ही रहते। 

इतना कहते ही सभी एक साथ बोल पड़े, "बाबाजी आपसे भगवान रूठे कहाँ, हम सब हैं नहीं और आप खड़े होइए चुनाव मे लोग आपको चाहते भी हैं। " बाबाजी माना करते जा रहे थे पर लोग अड़े पड़े थे और हाँ बाबाजी को अपनी हठ छोडनी पड़ी। 
बाबाजी को नामांकन भरता देख सभी मुहल्ले के लोगो ने जोरदार स्वागत किया। 
इतिहास रच दिया... हाँ इतिहास रच दिया....
बाबाजी निर्विरोध चुने गए हाँ किसी ने नामांकन ही नहीं भरा। लोगों के इस जबर्दस्त उत्साह से बाबाजी के जीवन मे नयी स्फूर्ति का संचार हुआ और वे दुगने उत्साह से अपने कार्य-क्षेत्र मे लग गए। देखते ही देखते उन्होने मुहल्ले मे मंदिर कि स्थापना करवा दी। सड़क, नाली, लैम्प सही करा दी। 

और बस ऊपर सर करके भगवान को धन्यवाद किया। फिर मन ही मन कहा अब कोई नेहा कोई तंग नहीं करेगा ना ही किसी सोनू की गाड़ी गड्डे मे गिरेगी। आज सुजाता तू होती तो देखती इन लोगो ने तो हमे देवता बना दिया। उन्होने मे मन ही मन बोला, " अजय तूने देखा लोगों ने हमे कितना प्यार दिया"
ईश्वर बस इतनी सी और कृपा करना घमंड, ईर्ष्या से दूर रखना। बस लोगों की सेवा मे मेरा दिन बीते इनती सी शक्ति देते रहना

- मिश्रा राहुल
(लेखक एवं ब्लोगिस्ट)

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

अखबार


खूनी धब्बे सानते है अखबार रोज़,
खुदा छुपके रोता है लाचार रोज़...!!!

पन्ने पलटने का मन ना होता,
बनकर टूट जाते है विचार रोज़...!!!

सड़ते घावो को ध्यान कौन देता,
मायूसी से झाँकता है उपचार रोज़....!!!

शकुनि के पासों मे उलझ ही जाता,
दुर्योधन से भागता है प्रतिकार रोज़....!!!

तम के कुशाशन पर ध्यान कौन देता,
जेबें वजने तौलता है बहिष्कार रोज़....!!!

©खामोशियाँ-२०१४

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

फरिश्ता



मिस्टर विशाल मेहरा....
सुबलक्ष्मी प्राइवेट लिमिटेड के जनरल मैनेजर। एक अजीब से सख्स बड़े तुनुकमिजाजी व्यक्तित्व के आदमी। ऑफिस हो या घर बार चिल-पों करना इनकी फितरत है। काम हो या ना हो, बात हो या ना हो। हर बात को खुद ही बुनना और खुद ही पेंच फंसा के दूसरे को डांटना तो उनकी आदत थी जैसे।
सोनू वहाँ का चपरासी था, मेहरा जी सबसे ज्यादा डांटते थे उसे। पर शायद सबसे ज्यादा लगाव भी सोनू से ही था तभी तो पिछले बारस बरस से सोनू को हटाया नहीं । अगर एक दिन भी सोनू ऑफिस नहीं आता तो मेहरा जी तो अपाहिज हो जाते। हालांकि ऐसा नहीं था की अकेला सोनू ही वहाँ काम करता था, पर सोनू मेहरा जी की रगों मे दौड़ता था।

ऑफिस के सभी मेहरा जी को चाहते थे (ऊपर से), अंदर तो सभी जाने कौन कौन से रंग-बिरंगे गाली के गुब्बारे छोड़ते। पर इस ऑफिस से उनके काफी गहरे रिश्ते थे। आखिर उनके अभिन्न मित्र और उन्होने मिलकर जो ये कंपनी डाली थी। वक़्त के जंजाल मे कंपनी ने काफी कुछ उधड़े दिन देखे, कितनों को करीब लाया और हाँ जाने कितने करीबी दूर चले गए। मेहरा जी के दोस्त राजेश सक्सेना का कंपनी मे अब कुछ ना था, सिवाय सुबलक्ष्मी नाम के हाँ सुबलक्ष्मी उनकी माताजी का नाम था। जब कंपनी बनी थी तो दोनों के लगभग बराबर शेयर थे, पर 51 फीसदी वाला हिस्सा सक्सेना जी का था। मतलब मालिकाना हक़ सक्सेना जी के पास।
सक्सेना जी बोलते तो बड़ा मीठा थे लेकिन काटते भी तीखा थे वो भी बड़ा प्रेम से। अपने बेवकूफाने रवैये और गलत निर्णयों से उन्होने कंपनी को कर्जे मे डूबा दिया। फिर वो अचानक ही लापता से हो गए।

मेहरा जी ने उनसे संपर्क साधने की काफी कोशिश की पर वो दिखे नहीं। बीवी-बच्चो समेत जैसे अंतर्ध्यान हो गए। सक्सेना जी को थोड़ा खराब लग रहा था, वो राजेश जो कभी उसके कदमो की ताक़त था आज समय पड़ने पर गायब हो गया। पर फिर भी मेहरा जी के मन मे राजेश खातिर कोई राग-द्वेष नहीं था।
"आखिर दोस्त थे उनके, हो सकता है कोई अचानक से काम आ गया हो और हर बात कोई मित्र से थोड़े बताता है " मेहरा जी मन मे बड़बड़ाए
खैर समय कहाँ रुका वो तो करवट लेता गया। आए दिन मेहरा जी को ताने मिलने लगे। कभी बैंक वाले आ धमकते तो कभी इन्वेस्टर । सुबलक्षमी प्राइवेट लिमिटेड को खींच पाना अब पहाड़ सा लगने लगा था। संपर्क तो अच्छे थे शर्मा जी के पर लोग भी वही पुरानी घिसी पिटी बात बोल उनका मुंह खुलने से पहले लॉक कर देते थे।
"मेहरा जी आप कोई और बिज़नस करिए क्या आप भी बंद हो रही कंपनी मे उलझे पड़े है"
"मेहरा जी नाम बदल लो कंपनी का शायद कोई सुधार हो...."
"मेहरा जी जवाने के साथ चलो कहाँ आप भी"......कमो-बेश यही सबका सुझाव रहता।
पर मेहरा जी तो अलग ही धुन के आदमी थे, वे सुनते तो सबकी थे पर कुछ बोलते ना थे। उनकी यादें जुड़ी जो थी इस कंपनी से। उसने और राजेश ने अपने सपने गढ़े हैं इससे। पर भवनाओं से कंपनी थोड़े चलती। आखिर वो दिन आ ही गया जब बैंक भी गिरवी रखी जमीन जप्त करने आ गए। अभी तक सक्सेना जी का कोई पता नहीं था। बैंक ने मेहरा जी और सक्सेना जी का घर की कुर्की करने के लिए इस्तिहार डाल दिया।

मेहरा जी अभी भी राजेश के रवैये को समझ नहीं पा रहे थे। आखिर उनका मित्र अचानक से ऐसा क्यूँ कर रहा था। अब उन्हे अनहोनी का अंदेशा लग रहा था। पर ऐसे मे वो राजेश का घर बैंचने नहीं देना चाहते थे। क्यूँ की राजेश को तो कुछ पता भी नहीं की यहाँ क्या हो रहा। और शायद वो अचानक से सब कुछ बर्दास्त ना कर पाए। उन्होने अपने सारे बैंक बैलेन्स लगा दिए पर वो सिर्फ सक्सेना हाउस ही बचा सका।
सब कुछ अपने नज़रो के सामने टूटता देख मेहरा जी कई बार थोड़े मायूस तो हुए पर निराश नहीं हुए। आखिर एक फ्लॅट मे रहने वाले मेहरा जी के परिवार को दो कमरे के मकान मे दिक्कत तो हो ही रही थी।
मिसेज मेहरा ने कई बार कोसा "विशाल आखिर सक्सेना को तुम इतना क्यूँ सर पर चढ़ाये बैठे हो, उसने तुम्हें ठगा है और तुमने उसका घर नहीं बिकने दिया....माजरा हमारे कुछ समझ नहीं आ रहा...."
मेहरा जी ने सोनू की तरफ दिखा के बोला, "इसे देखती हो श्रेया ये सोनू है, कल हम अमीर थे तो भी ये यहीं था, आज हम गरीब हैं ये फिरभी यहीं है। पर इसके काम के तरीके मे कोई बदलाव नहीं, बस हमने इसकी पगार मे बदलाव किया। हम लोग तो कुछ भी नहीं इसके आगे।"
श्रेया ने सर हिलाया पर वो शायद संतुष्ट नहीं थी कुछ तो खटक रही थी उसे। पर अनमने ढंग से वो बीच मे ही चाय पटक के चली गई।
मेहरा जी समझ रहे थे, उसे क्या खटक रही पर वो शायद कुछ राज़ को हटाने से कतरा रहे थे।
उसने पुचकारते हुए बोला, "श्रेया गुस्सा नहीं करते, वक़्त आने पर मैं खुद बता दूंगा सब। बाकी कंपनी फिर दौड़ेगी"

यही बोलकर वो तैयार हो चले गए कंपनी की तरफ।
दिन गुजरे, साल गुजरे। सक्सेना जी के हाथ से कमान छूटते ही मेहरा जी ने अपने तरीके से काम आगे बढ़ाया। पुराने लोग पहले ही नौकरी छोड़ दिये थे, हाँ बस सोनू ही वो सख्स था जो पुराने सुबलक्षमी और नए सुबलक्षमी की कड़ी था। तभी तो मेहरा जी सोनू को बहुत मानते थे। बड़े कम ही समय मे विशाल मेहरा ने दुबारा से बैसाखी से लिपटी कंपनी को वापस पैरो पर खड़ा किया। दूसरा घर खरीद लिया।
कभी कभी मेहरा जी राजेश को फोन भी करते रहते थे। पर अब वो थोड़ा खीजने लगे थे। उन्हे सक्सेना का रवैया अच्छा नहीं लग रहा था अब।

आज जल्दी काम लौटकर वो सीधा सक्सेना हाउस पहुंचे। सोनू भी था साथ आखिर सोनू उनका ड्राईवर भी था। अंदर से रौशनी बाहर झांक रही थी तो मेहरा जी ने सोच लगता है राजेश आज ही आया होगा।
मेहरा जी ने सोनू को बोला "बड़े जल्दी और सही समय पे मैं आ गया, तुम यही ठहरो हम ज़रा मिलके आते हैं "।
विशाल ने काफी बेल बजाई, कई बार पागल जैसे चीखा भी राजू...अबे ओ राजू....!!!
अंदर से कुछ आवाज़ हुई, दरवाजा खुल गया। एक समय जो राजेश विशाल को देखते ही खुशी से झूम जाता था। पर आज उसने दरवाजे से गेट तक आने मे 10 मिनट लगा दिए।
राजेश को देखते ही जैसे विशाल ने रहा ना गया। वो तुरंत राजेश से लिपट गया और रोने लगा। विशाल ऐसा रो रहा था मानो किसी पके घाव की पट्टी खुल गयी हो और लहू बंद ना हो रहा हो। आखिर विशाल रोता भी तो कहाँ श्रेया पहले ही टूटी थी। ये सिलसिला पूरे 25 मिनट चला विशाल ने जैसे अपना दुख दर्द पूरा राजेश पर उड़ेलता जा रहा था।

पर राजेश ने एक शब्द भी ना बोला, ऐसा लग रहा था उसे सब कुछ पहले से पता था। इतने मे पीछे से आवाज़ आई।
भाभी चिल्लाई, राजेश!! जल्दी आओ वरना लोग चले जाएंगे। राजेश का बदला रूप विशाल के समझ नहीं आ रहा था। वो खुद को कोस रहे थे, "हम ही तो भूल गए काम मे, आखिर एक बार घर आके मुझे मिलना चाहिए था....मैं ही तो गधा हूँ।" मेहरा जी सब कुछ सोचने मे इतने ताल्लीन हो गए थे कि राजेश कब गया उन्हे पता ही नहीं चला।
पर सोनू ने कुछ सुना था, हाँ वही सब कुछ पर शायद जो वो हिम्मत नहीं जुटा पाया साहब से बोलने का, आखिर एक नौकर की अवकात कितनी।

फिर भी डरते-डरते वो बोल बैठा, "साहब एक बात बताऊँ, राजेश साहब ने आपके पीठ पीछे अपना सक्सेना हाउस बेंच डाला है...."
इतना सुनते ही विशाल बाबू झल्ला गए और खींच के एक थप्पड़ सोनू को रसीद कर दिया। "अबे!! सोनू दिखा दी ना तूने अपनी अवकात। तुम लोग बस यही सब सोच भी सकते।" विशाल उस दिन काफी गुस्से मे थे
घर भी पहुंचे तो बच्चो पर झल्लाए। श्रेया को भी उल्टा-पलटा बोला। फिर खाने पर नुक्स निकाला। बहरहाल मेहरा जी सो गए।
सुबह उठे तो उन्हे थोड़ा तरस आया सोनू पर। सोनू घर उनके उठने से पहले ही आ गया था। उसके गाल पर अपनी उँगलियों के निशान छपे देख बड़ा बुरा लगा उन्हे। सोनू खाना परोस रहा था कि श्रेया ने देखा तो उससे रहा नहीं वो पूछ बैठी, "सोनू कहीं झगड़ा किया क्या...????"
सोनू ने तपाक से बोला, "नहीं मालकिन...मम्मी ने मार दिया कल उन्हे खाना पसंद नहीं आया था...।"
श्रेया को कुछ जवाब पचा नहीं। पर विशाल तो शर्म से पानी पानी हो रहे थे।

सोनू फिर से विशाल को लेकर गाड़ी मे बैठ ही रहा था। मेहरा जी ने आँखों से माफी भी मांग ली और सोनू ने माफ भी कर दिया। ऐसे काफी काम सोनू-मेहरा जी आँखों से कर लेते थे। फिर भी सोनू ने संतोष दिया, "साहब आप ने सही किया था वैसे मुझे मार के अब मैं अपनी अवकात मे रहूँगा।"
तभी मेहरा जी की फोन की घंटी बजी, राजेश का फोन नंबर स्क्रीन पर चमकता देख उन्होने सोनू को चिढ़ाया "देख सोनू, तू गलत था, मेरे यार ने फोन किया मुझे।" इतना कहते ही उन्होने फोन रेसीव किया।
विशाल थोड़ा जल्दी ऑफिस आना "जरूरी काम है, मुझे अब अपना हिस्सा चाहिए कंपनी का मुझे शहर छोडना है। मैं जा रहा हूँ स्मृति का भी मन यहाँ नहीं लग रहा। और उसे इस बिज़नस मे इंटरेस्ट नहीं हम कोई और डालेंगे। कुछ पैसे आ गए है मैंने घर बेंच दिया और बाकी मेरे शेयर दे दे यार"
विशाल के पाँव के नीचे से तो ज़मीन खिसक गयी थी मानो। वो सोनू को देख रहे थे और सोनू उन्हे, फोन लाउड-स्पीकर मोड़ पर था तो राजेश के शब्द पूरे कार को कोने कोने मे गूंज पड़े।
विशाल ने कुछ बोला नहीं बस, "चुप से हो गए...."
मन ही मन सोचा की आखिर मुसीबत केवल मेरे की चौखट पे आकर ठहर जाती क्या। काफी कुछ सोचते रहे पूरी 5 किमी की यात्रा मे। कैसे उनके रोने पर राजेश खुद रो जाता था, कैसे बर्थड़े पर केक सबसे पहले वो ही लेकर आता था। अपने असाइन्मंट कर वो मेरे पर कूद जाता था। आज एक लड़की के कहने पर उसने मेरी दोस्ती ठुकरा दी। चलो दोस्ती गयी तेल लेने, उसने दादी के जुटाये पैसो से जमी कंपनी मे इंटरेस्ट नहीं रहा।
और वो घर जिसमे दादी अम्मा की यादें है वो, जिसके लिए मैंने अपना हर चीज़ दांव पर लगा दिया था।
उसको बेंच कैसे दिया उसने।

अब विशाल को सोनू, श्रेया की हर एक बात 16 आने सही लगती जा रही थी। इसी 5 किमी मे मेहरा जी को इतना कर्कस बना दिया की पता ही नहीं चला। फिर भी किसी का एहसान ना लेने वाले विशाल मेहरा ने फिर एक मिसाल पेश कर दी।
लौटा दिया राजेश का शेयर "जो शायद उसका कभी था भी नहीं", पर ईमान के सच्चे, वादो के पक्के मेहरा जी ने ज़रा भी नहीं हिचका कंपनी की आधी संपत्ति लौटाने मे।

फिर वही नियम। घर गिरवी कर पूंजी निकालना, श्रेया को जैसे आदत सी हो गयी थी। वो अब कुछ बोलती भी ना थी। घर मे अब पुराने वाले विशाल मेहरा नहीं थे। वो हर बात पर झुझलाने लगे थे, आखिर उनका इंसानियत पर से विश्वास जो उठ चुका था। कभी लोगो के लिए उत्साह के साधन विशाल मेहरा अब टूटने लगे थे। वो ऑफिस तो जाते थे पर उनका मन लगता नहीं था कहीं। हर बात पर उलझ जाना हर बात पर क्रोधित होना उनके लिए आम बात थी। जिससे उनके संबंध ऑफिस वर्करों से दिन-ब-दिन खराब होते जा रहे थे।
इसी वजह से विशाल मेहरा और परेशान होते जा रहे थे। मेहरा जी जितना दूर भागते, कष्ट उनके पद-चाप पकड़े पास चला आता। बस इसी क्रम मे श्रेया ने भी रोकते रोकते आखिर एक दिन चीख पड़ी। उसको चीखता देख विशाल मेहरा बस रो ही दिये।

मेहरा जी ने बड़ी तेज़ आवाज़ मे चिल्लाया "सोनू जल्दी से गाड़ी निकालो....अस्पताल जाना है.....!!"
विशाल अपनी गोद मे श्रेया का सर लेटाए। ज़ोर ज़ोर से रोते जा रहे थे। सोनू भी अपने आप को रोक कहाँ पा रहा था। आखिर उसका घर-परिवार वही तो था। सोनू एक तरफ खुद रोता एक ओर मालिक को ढाढ़स भी बंधाता।
हॉस्पिटल आ चुका था। अगले ही पल श्रेया स्ट्रेचर पर लेटे चीखती हुई अस्पताल मे दाखिल हुई।
शाम तक रिपोर्ट आई।
डॉ साहब ने कहा, "श्रेया की दोनों किडनी खराब हो चुकी है। और ये अचानक नहीं हुआ शायद मेहरा जी आप इसके जिम्मेदार है आपने ध्यान नहीं दिया। आज कल का पति कैसा हो चुका है। जाने क्या-क्या बड़बड़ाते हुए बोलते गए।
विशाल "ओहह किडनी खराब...तो डॉ साहब अब...."
"अब क्या किडनी लगेगी आप व्यवस्था करिए, हम ऑपरेशन कर देंगे" डॉ साहब ने विशाल के कंधे पर हाथ रखते कहा

विशाल मेहरा ने तुरंत ही जाके ऑपरेशन का बिल जमा कर दिया और अपनी किडनी देने की बात की, पर बात ना बनी विशाल बाबू की किडनी नहीं लग पाएगी। मैच नहीं हुई। विशाल मेहरा ने कितनों को फोन किया पर कुछ ने फोन उठाया नहीं कुछ ने ताने मारे। कुछ ने कहाँ मर जाने दे। वगैरा वगैरा जो जिसके मन मे आया।
कुछ समझ ना आने पर उसने सोनू को फोन मिलाया, "उसका भी नंबर बंद"। मन ही मन बड़ी गालियां दी मेहरा जी ने सोनू को "कमीना!! भाग गया सोचा कहीं मालिक उसे अपनी बली का बकरा ना बना लें!!"

सर पर हाथ रखे, विशाल मेहरा कितनी देर से बैठे थे उन्हे पता ही नहीं चला। बस अंदर से आई आवाज़ उनके कानो को गूंज गयी "मेहरा जी!!! आपकी मिसेज को होश आ चुका है "
विशाल बाबू को पता नहीं चला आखिर ये किसने किया। वो सीधा जाके श्रेया से लिपट गए और इशारों मे ही पूछ लिया। श्रेया ने बोला सोनू, तुम कहते थे ना इंसानियत कहाँ है "वो देखो जो बिस्तर पर बेसुध लेटी है ना, वही है इंसानियत"।
विशाल बाबू काफी देर तक सोनू को निहारते रहे। उनके आँसू बड़ी देर तक बरसात करते रहे।
विशाल बस इतना ही बोलते रहे, "इंसानियत कभी मरी नहीं हम हार गए और सोनू जीत गया। कभी एहसान ना लेने वाले विशाल मेहरा जी को एक अदना ना सोनू काफी बड़े एहसान मे बांध दिया था।"

मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

ज़िंदगी की लज़ीज़ डिश


दो चम्मच बारीक 
कटी हुई मुस्कुराहट मे,
हल्की सी मद्धिम आंच पर
कुछ दो चार दाने यादों के छिड़क ।

अंश्कों के तेल मे
छौका लगा उम्मीदों का...
बस कुछ देर ठहरने तो दे,
वादों के कलछुल को
अपनों से गले मिलने 
तो दे ।

अब ढाँप के रख,
धैर्य के बड़े प्लेट से,
ताकि निकल ना जाये
कुछ एहसास धुआँ बन के ।

सारे मौजूद रहेंगे,
तभी तो बनेगी
ज़िंदगी की लज़ीज़ डिश* ।

(डिश* Dish)

©खामोशियाँ-२०१४

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

गुमनाम चेहरा


सलाम साहब....!!!
ज्यों ही रेस्टोरेन्ट का दरवाजा खोला यही सुनने को मिला, "चौधरी स्वीट हाउस मे आपका स्वागत है जी पधारिए" ।
आज कुछ खाली खाली सा लग रहा था, रेस्टोरेन्ट पर मैंने अपना पसंदीदा कोना पकड़ बैठा ही था बस मेनू कार्ड पकड़ा दिया। अक्सर मैं यहीं पर आकर बैठता हूँ क्यूँ....???
इसका शायद पता नहीं, पर लगाव ही समझ लीजिये। जो हो जाता है भले निर्जीव ही सही।
कुछ देर इंतज़ार के बाद एसएमएस डाल दिया....
"I'm waiting Dear....Cme CSH fast..."
इतना लिख सेंड का बटन दबा दिया। कुछ देर रिप्लाइ ना आता देख मैंने कॉफी ऑर्डर कर ली। आज भींड वाकई कम थी तो मुझे लग रहा था लोग मुझे ही देख रहे। खैर मैंने भी फॉर्मल्टी पूरी कर अब थोड़ा रिलैक्स हो गया।
रिप्लाई आने मे वक़्त से मुझे गड़बड़ का अंदेशा हो रहा था, अक्सर लड़कियां प्लान कैन्सल करने वाली होती तो ऐसे नखरे मारती हैं। खैर कॉफी आ गयी साथ रिप्लाइ भी आई। मानो कॉफी मुंह चिढ़ा रही थी हमे, कि पहले एसएमएस पढ़ोगे या मुझे उठाओगे।
हमने ज्यादा उधेड़बुन किए बगैर ही कॉफी को बाजू कर दिया।
फोन अनलॉक कर सीधा इनबॉक्स की ओर तेज़ी से कदम बढ़ाए,
"Cming in 5 mins..plz wt dear.." मैं समझ गया अब आधा-घंटे से ज्यादा लगने वाला। अब इनके आधे-अधूरे मेसेज जैसे चालो को समझने की हुनर भी अपने मे डेवेलप कर लिया था।


मैंने भी बिल पेमेंट करके जाने वाला ही था कि मेरी नज़र कोने पर बैठी लड़की पर पड़ी। चेहरा ठीक से दिख नहीं रहा था पर ना जाने कुछ एहसास था जो मुझे उसकी ओर खींच रहा था। बाल बिखरे थे, साथ मे सूटकेस, हाथ दोनों चेहरो को ढ़ापे । मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। अंकिता का ख्याल आते ही पाँव पीछे सरक जा रहे थे। कहीं उसने मुझे देख लिया तो अच्छा भला अर्थ-अनर्थ हो जाएगा। घड़ी भी अंकिता की 15 मिनट लेट बता रही थी। फिर भी ना चाहते हुए भी मैं खुद को रोक ना पाया और पहुँच गया उसके टेबल पर। 

जैसे ही मैं टेबल पर दस्तक दी उसने अचानक से मुझे देखा। 
अरे...."शिवांगी तुम"....मैं हड़बड़ी मे बोल पड़ा.....!!!
ओहह....राहुल....क्या बताऊँ यार....
वो मुझे ऐसे देखने लगी मानो किसी जनम मे दो लगोटियाँ यार जुदा हो गए हो और आज अचानक से मिल रहे....
अब तो उसकी सिसकियाँ जो किसी कपबोर्ड मे बंद पड़ी थी अचानक से तेज़ हो गयी। उसका मन तो मुझसे लिपट के रोने का हुआ पर जगह की नज़ाकत देख उसने खुद को सम्हाला।
"आखिर हुआ क्या...कुछ तो बोल....ये सूटकेस, तेरे ये हालत.....कैसे क्यूँ और कहाँ से हो गयी...." मैंने उस पर सारे क्वेस्चन टैग झोंक डाले...."
पर उसके मुंह से कुछ निकल ही नहीं पा रहा था, बस बोलते जा रही थी। मेरी ज़िंदगी बर्बाद हो गयी अब मैं कहाँ जाऊँ क्या करू। मुझसे कुछ पूछते ना बन रहा था। 

तभी अंकिता आ गयी। उसने मुझे मेरी शर्ट की परफ्यूम से तुरंत खोज लिया और टेबल लगा के बैठ गयी। 
"राहुल....माफ करना ट्रेफिक थी यार...इसलिए लेट हो गयी....चलो ऑर्डर करो जल्दी....!!
वो मुझे सफाई देने मे इतनी तल्लीन थी शिवांगी को देख ही नहीं रही थी। पर जैसे ही उसको लग गया की मेरा ध्यान कहीं और है उसने नज़र घुमाई। 
"शिवागी....अरे शिवांगी....मेरी स्वीटू...मेरी क्यूटी...कब आई रे....और राहुल तूने बताया भी नहीं एक बार भी...."... अंकिता एक ही सांस मे जाने कितना कुछ बोल गयी, अपनी पुरानी शैली की तरह। 
पर शिवांगी ने कुछ एक शब्द भी बोला नहीं, वो तो कहीं और ही थी। जाने क्या उथल पुथल चल रही थी उसके जेहन मे। 
"अंकी ये कुछ बोलतो ही नहीं...ना कुछ खा ही रही, मैं तो थक गया अब तू ही पूछ..." मैंने जवाब मे सवाल लगाया...
अंकिता समझ गयी थी जगह, माहौल के कारण शिवांगी कुछ बोलने से बच रही। 
राहुल मैं शिवी को लेके बाहर हूँ, तुम बिल कर दो।
"अच्छा....ठीक है" मैंने भी जवाब मे कहा
शिवांगी रोते जा रही थी, जाने क्यूँ आखिर माजरा क्या था। कुछ साफ ना हो रहा था, बड़े अनाब-सनाब ख्यालो से मन कचोट रहा था। फिरभी मैंने खुद को ढाढ़स बंधाया। 

"चलो अब सब मेरे घर और शिवांगी तू अगर अब रोई तो हम दोनों रो देंगे जान ले " अंकिता ने साफ किया
"ओए, अंकी चुप कर मैं नहीं रोऊंगा चाहे कोई रोये या चुप रहे" मैंने मुस्कुरा के बोला
शिवांगी हल्का सा मुस्कराई....और हमने उसके हंसी पिचकारी मे भर के दुबारा छोड़ दी...!!!
"मत रोना राहुल मैं नहीं चाहती तू रोए..." शिवांगी ने आँसू पोछते हुए बोला 

हम देखते देखते अंकिता के घर चले आए। "अब बता शिवी बात क्या है, तू तो एम्स मे थी ना क्या हुआ और सूटकेस ये सब क्या है " अंकिता ने फिर अपने लहज मे एक सांस मे पूछ डाला।
वो सुनीता उपाध्या...इतना कहकर फिर शिवांगी चुप हो गयी
"हाँ क्या सुनीता उपाध्या" हमने बात आगे बढ़ाने पर ज़ोर दिया
हाँ एम्स मे थी मैं सारा साल अच्छा जा रहा था। मैं वहाँ अच्छे बच्चो मे गिनी जाती थी। ये फ़ाइनल इयर था मेरा। सुनीता मैडम शुरू से ही मुझे तंग करती थी, पर मैं बार-बार उन्हे अवॉइड कर जाती थी। क्लास मे हर-बार मुझसे सवाल पूछना, बार-बार मेरा असाइन्मंट चेक करना उनकी आदत थी। शुरू-शुरू मे मैंने ध्यान नहीं दिया पर। 
एक बार जब वो मेरा वाई-वा ले रही थी तो वो बोल ही दी 
"तुम लोग x#$%@ नीच जाति वाले आ जाते हो और मेडिकल कैम्पस मे सरपत जैसे बस जाते। तुम लोगो की अवकात बस पैरो के नीचे है। बस तू देख मैं कैसे तुझे पास होने देती हूँ इंटरनल तो मेरे यहाँ से हो के जाते। मेरी बदनसीबी बस ये थी की उस वक़्त मैं ही अकेली आरक्षित लड़की थी (उस जमाने मे हाइयर एडुकेशन मे आरक्षण नहीं था) । मैंने सोचा की सुनीता जी की शिकायत करू पर किससे। क्या मुझे कोई तवज्जो देगा?? सुनीता मैडम का ओहदा काफी बड़ा है लोग लोग जानते उन्हे मुझे ही फटकार लगेगी। 
सो मैंने चुप रहने मे ही भलाई समझी।

"फिर क्या हुआ" अंकिता और मैंने एक सुर मिलाई
होना क्या था। रिज़ल्ट आया फ़ाइनल का और मैं फ़ेल हो गयी। एक महीने पहले ही मेरी शादी की डेट फ़ाइनल हुई थी। रितेश के साथ। रितेश को मैं काफी दिनो से जानती उसके साथ मेरा ताल-मेल अच्छा। 
तो फिर उसको बताई ये सब....??? अंकी ने उत्सुकता से पूछा
नहीं बताई मुझे डर भी है उसका नहीं उसके घर वालो का वो मानेगे नहीं और मैं रितेश को खोना नहीं चाहती थी। मम्मी बुलाई थी पर क्या मुंह लेके जाऊँ। मुझसे रहा नहीं जाएगा और मैं सब उगल दूँगी। तभी रेस्टोरेन्ट मे आके बैठी बाहर कोई देख लिया तो गजब हो जाएगा, लोग फर्जी बातें बनाएँगे लड़की यहीं रहती घर नहीं आती वगैरा-वगैरा तुम लोग समझ सकते समाज को।   
"शिवांगी, तू घबरा नहीं अरे सब उपाध्या जी थोड़े है हाई-कोर्ट है सूप्रीम-कोर्ट है हम केस ठोक देंगे। उनकी मनमानी थोड़े ही है" मैंने उसे हौसला दिया
"केस के लिए पैसे कहाँ मेरे पास, एक तो पहले ही लोन से पटे पड़े है उसको चुकता करने की बारी आई तो मैं फ़ेल हो गयी। अब दुबारा पढ़ने के पैसे भी नहीं....लोन मिलेगा नहीं...कर्जा पटेगा नहीं। क्या करू कुछ समझ नहीं आ रहा। 
"सपने कितने अच्छे होते ना अंकी, जो कभी पूरे नहीं होते...!!" इतना कहकर शिवांगी फिर से फफकने लगी। 
अंकिता ने उसे ढाढ़स बंधाया "अबे!! रो मत हम हैं ना काहे चिंता कर रही। 
शिवांगी रोते रोते....सोती चली गयी।। 

अंकिता सुन "शिवांगी काफी ज्यादा कमजोर हो गयी थी। उसने लगता काफी दिन से कुछ खाया-पीया नहीं। मैंने सोचा रहा हूँ कुछ लेता आऊँ। तू हिलना मत इसका खयाल रखना। मैं अभी गया और अभी आया।"
मैं बड़ी तेज़ी से चलता जा रहा था, कुछ समझ नहीं आ रहा था। क्या करू, किससे बोलू क्या दर्द सुनाऊँ। 
फिर भी मैं कुछ देर बजरंग बली के पास से गुज़रा "उन्हे कोसा भी जी भर के मैंने, उल्टा-सीधा बोल डाला जो मन मे था...." 
सारा सामान खरीद पैक करा कर चल ही रहा था कि सोचा एक बार फोन कर पूछ लूँ कि कुछ बाकी तो नहीं बचा अभी। मुझे अंकिता का नंबर तक याद नहीं आ रहा था, जो कि सोते वक़्त भी मेरे दिमाग मे चलता है। 
मैं कांटैक्ट की तरफ बढ़ा और कॉल लगाया....
"पूरी रिंग गयी....कॉल ना उठी "
फिर मैंने उसकी दूसरी सेल पर लगाई वो भी यही स्थिति, मैंने उस समय पचास गाली बकी होगी अंकिता को भगवान कसम। एक तो लड़की बीमार और ऊपर से फोन नहीं उठ रहा। मन मे फिर बुरे ख्यालों का तांता लग चुका था। मेरे कदम काँप रहे थे। मैं शिथिल पड़ता जा रहा था। बार बार रोती हुई शिवांगी नज़र आ रही थी। 

खैर पहुँच गया। ओह इतनी भींड़ हे भगवान क्या हो गया अचानक से। मैंने तेज़ी से पहुंचा पर शायद मुझे देर हो गयी थी। शिवांगी ने मौका देख दरवाजा अंदर से बंद कर लिया था। अंदर उसकी लाश झूल रही थी। 
बिलकुल पेंडुलम जैसे इशारा कर रही हो की वक़्त अब थम चुका है। अंकिता रो रो के बुरा हाल किए हुए थी। 
मुझे भी बड़ा रोना आ रहा था, और मैं बस यही बोले जा रहा था "हाँ शिवांगी मैं खुद को रोक ना पाया...हा शिवांगी मैं खुद को रोक ना पाया।"
"तू रोएगी तो हम सब रोएँगे यही बोलता गया मैं हाँ यही बोलता गया मैं।
मिश्रा राहुल 
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)