बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

बेमिसाल ज़िंदगी


बाल सफ़ेद....चेहरे पर कार्बन फ्रेम का मोटा चश्मा....बदन पर मटमैला रंग का कुर्ता....और कंधे पर भगवा झोला।
हाँ शायद यही थी कद-काठी उस पैसठ-सत्तर बरस के बुजुर्ग की। पर उनको बुजुर्ग कहना जरा गलत सा होगा उनकी दिनचर्या इतनी चुस्त-दुरुस्त थी की आज भी वो पाँच-सात किमी आसान से दौड़ जाते थे। उनके सामने अच्छे-अच्छे नवयुवक पानी भरते नजर आते थे। इतनी बड़ी ज़िंदगी, बड़ी कठिनाई से काटने के बावजूद उनके चेहरे पर शिकन ना होती थी।

पर अब इस उम्र के पड़ाव मे वो ज़रा एकांत चाहते थे। तभी भीड़ वाली दुनिया से दूर, सुबह-सुबह हर रोज़ निकल जाते किसी एकांत की तलाश मे। पर एकांत भी उनकी पहुँच से दूर ही भागता जाता। अभी मन की इसी उथल-पुथल मे रमे पाठक जी एक अंजाने से पार्क मे बैठे कुछ और ताना बुनने ही वाले थे कि पीछे से आवाज़ आ गयी।

अरे बाबाजी...प्रणाम...राय साहब ने बोला
जीते रहो...बेटा...पाठक जी का यही तकियाकलाम था। पर मौके की नज़ाकत को पकड़ते हुए, पाठक जी ने उन्हे और बोलने का मौका भी नहीं दिया।
बेटा ज़रा लेट हो गया अब चलता हूँ..पाठक जी ने बड़े नरम आवाज़ मे कहा...!!

महेश्वर पाठक अपने एरिया के महा विद्वान और पूजनीय व्यक्ति माने जाते थे। किसी के यहाँ कुछ कार-परोज हो तो सबसे पहले न्योता महेश्वर पाठक जी उर्फ "बाबाजी" को दिया जाता था। ऐसा नहीं था की बाबाजी लोगों को पसंद नहीं करते थे, पर कुछ उखड़े-उखड़े रहते थे। सारा जीवन जप-तक मे काटे महेश्वर पाठक के पास जमा पूंजी के नाम कुछ ना था। हाँ था तो बस "एक तेज़ जो उनके साथ चलता था, जिससे वो कितने भी भीड़ मे हो आसानी ने पहचान मे आ जाते थे"।


महेश्वर पाठक...शायद नाम ही काफी था मुहल्ले मे। लोग तो यहाँ तक की उनके घर के पते से अपने निवास स्थान को बतलाया करते थे। बाबाजी बड़े सुबह ही उठ नियमतः पूजा मे तल्लीन हो जाते थे। पर इतने जप-तप करते हुए भी पाठक जी कभी सुखी न रह पाए थे। जितने सुनियोजित बाबाजी थे, उतना ही पत्नी सुजाता भी कर्मठी थी। आखिर हो भी क्यूँ ना महेश्वर पाठक की पत्नी कहलाना भी कम गौरव की बात थोड़े थी। बाबाजी भी तो काफी ज़िम्मेदारी उन्हे सौंप दिया करते थे। 

भगवान के बेहद करीब माने जाने वाले बाबाजी चंद-मंत्रो के उच्चारण मात्र से बड़े-बड़ो के दुखड़े हर लेते थे। पर शायद ईश्वर से कभी भी बाबाजी की बनी ही नहीं। बड़े कम समय मे ही उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया, ज़िंदगी के हर चट्टानों से दो-दो हाथ कर बाबाजी ने अपनी ज़िंदगी काटी। पर फिरभी ईश्वर को कभी दोष ना देते थे। बाबाजी का बेटा था अजय पाठक, था थोड़ा अंग्रेज़ियत वाला। उसे उनके काम मे जरा भी दिलचस्पी नहीं आती थी। बाबाजी के अपने काम मे इतने मगन रहना भी इसकी वजह हो सकती थी, वे घर वालो को समय नहीं दे पाते थे। अजय गुस्सा होता तो सुजाता से शिकायत करता था। हाँ, सुजाता एक कड़ी थी अजय और बाबाजी के बीच की। 

एक दिन अजय से रहा ना गया और बोला "माँ, आखिर ऐसे कब तक चलेगा!! आखिर पापा समझते क्यूँ नहीं इन सब से हम कब तक गुज़ारा कर पाएगे। ओह गोड...इट टू इरीटेटिंग। ये भजन-वजन आप गाओ। मेरे से ना होगा, और मुझे बाहर जाना है। 
सुजाता ने बहुत समझाया पर इस बार मसला गरमा गया। बाबाजी के कानो तक भी मामला पहुँच ही गया। उन्होने सुजाता को समझाया, "उसका अगर मन नहीं तो काहे जिद्द करतीं हैं आप, जाने दीजिये"। 
आखिर बेटे की ज़िद्द के आगे दोनों नतमस्तक हुए। अजय को अपनी सारी जमा पूंजी लगा कर बाहर भेज दिया। 

अब बाबाजी फिर से अपने धुन मे लग गए। पर सुजाता को रह-रह कर अजय की ही याद सताती। मन ही मन सोचा करती, "अकेला है और विदेश मे जाने कैसे कैसे लोग होते...कैसे रहेगा क्या खाएगा"। यही सब सोच सोच कर सुजाता गुमसुम सी रहने लगी। हर साल कलेंडर देखती और सोचती "बेटा आया नहीं ना ही कोई फोन किया"। पाँच साल बाद आखिर बेटे का वियोग उसे छोड़ा नहीं अचानक उसकी तबीयत खराब हुई, पता चला सुजाता को ब्रेन-ट्यूमर है। बाबाजी की अलौकिक शक्तियों का फिर से ईश्वर ने जमकर मज़ाक बनाया। सुजाता नहीं रही बाबाजी को अकेला छोड़कर। बाबाजी ने अजय को बुलवाने की हर संभव कोशिश की पर शायद, "उसे आना नहीं था..." पर बाबाजी हिम्मत नहीं हारे, पोटली उठाई और फिर से लग गए ईश्वर के भजन मे। लेकिन उन्हे आदत सी हो गयी थी सुजाता की, रह-रह वो फफक से पड़ते थे। 
पर लोग उन्हे थामते दिलासा देते, "बाबाजी आप ही तो हम सबके आदर्श हो और आप ऐसे करेंगे तो हम अपना दुखड़ा किससे रोएँगे"। 
लोग उन्हे भरोसा देते पर मन ही मन कोसते, हर तरफ एक ही जैसे, "बाबाजी के बेटे डॉ अजय पाठक की 
डिग्री किस काम की अगर वो अपने माताजी को ही नहीं बचा सका, ऐसे नालायक हो जाते है औलाद।"

बहरहाल बाबाजी ना समय को रोक सके ना दुख को। दोनों समानान्तर पटरियों की तरह उनसे बराबर दूरी पर ही रहते थे। काल-चक्र ने शायद बाबाजी को हार मनवाने की ठान ली थी, पर बाबाजी हर बार अपने चोटों को सहलाते उठ जाया करते थे। आखिर जो व्यक्तित्व उन्होने अपने इर्द-गिर्द बनाया था उसका फल मिलने के दिन आ रहे थे। नगर निगम के चुनाव के डंके बज गए, हर गली हर कूचे से प्रत्यासी अपने नामांकन भरने के लिए जोरों-शोरों पर थे। तभी उन्ही मे से किसी ने लहर उठा दी, क्यूँ ना बाबाजी को हम अपना प्रतिनिधि बना ले। मुहल्ले वालो मे तो सहमति बनते देर ना लगी। 

बस जो सबसे बड़ी बाधा थी वो अभी पार पानी बाकी थी। वो ये कि कौन जाके बाबाजी को मनाएगा चुनाव लड़ने के लिए और क्या बाबाजी मानेंगे या नहीं। खैर रात तक फैसला हो गया कि कल सब चलेंगे और बाबाजी को अपने बातों मे फंसा लेंगे। 

किसी तरह रात बीती, हर घरों मे यही चर्चे ज़ोरों पर थे, "बाबाजी मानेंगे या नहीं...."। शायद जितनी उत्सुकता एक बोर्ड एग्जाम वाले बच्चे को रिज़ल्ट आने से होती बस उसी तरह की मनोदशा पूरे मोहल्ले को घेर के रखी थी। लोग बाबाजी से एक एक कर मिले सबने कुछ ना कुछ दुखड़ा ही रोया। 

"बाबाजी अपने मुहल्ले के बल्ब देखिये कभी रात मे जलते नहीं, नेहा को रात मे कॉलेज से आने मे तकलीफ होती है" श्रीवास्तव जी ने कहा
अभी बाबाजी कुछ बोलते तभी सोनू बढ़ई आ गया, "बाबा ये देखो ना पूरा सड़क कैसा हो गया है, कल मैं अपने समान को पहुंचाने जा रहा था कि गाड़ी गड्डे मे गिरी और सामान चकनाचूर हो गया"
बाबाजी को कुछ समझ नहीं आ रहा था, लोग क्या बोलना चाह रहे थे, बाबाजी अचानक से बोल पड़े सोनू बेटा और अनिल बाबूजी आप जाके सभासद से कहिए ना हम कैसे करेंगे ये सब। आपके दुखड़े हरने के लिए मेरे पास तो पैसे भी नहीं, बाकी बचे भगवान वो तो हमसे रूठे ही रहते। 

इतना कहते ही सभी एक साथ बोल पड़े, "बाबाजी आपसे भगवान रूठे कहाँ, हम सब हैं नहीं और आप खड़े होइए चुनाव मे लोग आपको चाहते भी हैं। " बाबाजी माना करते जा रहे थे पर लोग अड़े पड़े थे और हाँ बाबाजी को अपनी हठ छोडनी पड़ी। 
बाबाजी को नामांकन भरता देख सभी मुहल्ले के लोगो ने जोरदार स्वागत किया। 
इतिहास रच दिया... हाँ इतिहास रच दिया....
बाबाजी निर्विरोध चुने गए हाँ किसी ने नामांकन ही नहीं भरा। लोगों के इस जबर्दस्त उत्साह से बाबाजी के जीवन मे नयी स्फूर्ति का संचार हुआ और वे दुगने उत्साह से अपने कार्य-क्षेत्र मे लग गए। देखते ही देखते उन्होने मुहल्ले मे मंदिर कि स्थापना करवा दी। सड़क, नाली, लैम्प सही करा दी। 

और बस ऊपर सर करके भगवान को धन्यवाद किया। फिर मन ही मन कहा अब कोई नेहा कोई तंग नहीं करेगा ना ही किसी सोनू की गाड़ी गड्डे मे गिरेगी। आज सुजाता तू होती तो देखती इन लोगो ने तो हमे देवता बना दिया। उन्होने मे मन ही मन बोला, " अजय तूने देखा लोगों ने हमे कितना प्यार दिया"
ईश्वर बस इतनी सी और कृपा करना घमंड, ईर्ष्या से दूर रखना। बस लोगों की सेवा मे मेरा दिन बीते इनती सी शक्ति देते रहना

- मिश्रा राहुल
(लेखक एवं ब्लोगिस्ट)

6 टिप्‍पणियां:


  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.04.2014) को "शब्द कोई व्यापार नही है" (चर्चा अंक-1579)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. जीवट व्यक्तित्व दिखाया है
    पढ़कर मन भी हर्षाया है
    एक आस्था ईश्वर की रहे
    हर काम बन फिर पाया है
    जीवन के अंतिम बरस में
    पात्र करके दिखा पाया है
    लू भक्ती की लपलपाई जब
    उसने फिर तेल दिलाया है
    हट अँधेरा भरा प्रकाश तब
    पाठक का मन गदगदया है


    इधर पाठक मैं हूँ

    असल अज्येय तो बाबा जी हैं


    बहुत खूब !

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    1. भैया !!
      बाबाजी एक मिसाल है उन लोगो खातिर जो कुछ भी अनहोनी होने पर ईश्वर को कोसते....!!

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  3. कल 12/04/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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