बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

कृतिम खूबसूरती



लपकती झपकती आँखें, उँगलियों से जुल्फे सुलझाती। ट्रेन की खिड़की लगे सीट पर बैठी बाला। लड़ रही अपनी लटों से, जो बार बार किसी जिद्दी बच्चे की तरह कानों की चाहदीवारी फांग बाहर निकल जा रहे।

सूरज किसी लफंगे मजनू की तरह खिड़की बदल-बदल के झाँका करता। जब जब वो सहेज कर हटती, तुरंत की किसी रेत की महल जैसे ढहा देता तेज़ी से आता झोंका। डूबते सूरज की लाल सतरंगी किरने आकर उसके बालो के रंगों को और उकेर देती। अभी ये सब कितना सुंदर चल रहा था कि अचानक से रात आ गयी। खिड़कियों पर शीशे के चद्दर ओढ़ा दिये गए, सटर गिर गए। 

अंदर की कृतिम रोशनी मे वो पहले जैसी कहाँ दिख रही थी। ट्रेन के पंखे भी उसके बालों को नहीं छेड़ रहे थे। मानो कोई घर का गार्जियन आ गया हो, और उसका बाहर घूमना फिरना बंद कर दिया हो। 

कुछ बातें जो प्रकृति ने बना के दी है उसमे इंसान आखिर किस हद तक फेर-बदल कर चुका है। बस इसी हरकत से वो भी हैरान परेशान है। आखिर हम होते कौन है इन सब पर बंदिश लगाने वाले। 

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

4 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद बेहतरीन रचना ..वाह कितनी बारिक नजर और अहसास को आपने शब्दों का जामा पहनाया है... उम्दा

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    1. संजय बाबू। इन सब जगह आँखें खुली ही रहती।

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  2. विचारणीय....इंसान ठहरना कहाँ जानता है ....

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