बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

लप्रेक ७


कानो के दो सूराखों में झुमके भरते हुए बोला।  देखो कैसे मस्ती से झूम रहा तुम्हारे कान को पकड़ के। लाल सूरज, तरंग फ़्लाइओवर, नीचे तेज रफ्तार ट्रेन और ऊपर ये बेहतरीन अकेली हवाएँ।

हवाएँ अकेली नहीं देखो नीले बैक्ग्राउण्ड में दूर कबूतर के जोड़े खोल दिये है अपने पंख। नीचे की चिल्ल-पों से दूर वहाँ ना वहाँ पुलिस की सीटी है ना लफंगों का घूरती निगाहें।

बातें मद्धिम होती चली गयी। कबूतर के जोड़े ऊपर ही ऊपर निकल गए। बस मगरमच्छी निगाहें उस जगह को घेरने लगी।

©खामोशियाँ-2015 | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (15-अक्तूबर-2015)

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